धनतेरस पर खरीदारी शुभ मुहूर्त आज शाम 6.39 से 8.35 बजे तक
कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से कार्तिक शुक्ल द्वितीया तक चलने वाले दीपोत्सव का आरंभ इस बार धनतेरस 28 अक्टूबर से हो रहा है। इन पांच दिनों के दीप पर्व पर यमराज का भी स्मरण किया जाता है।
वाराणसी (जेएनएन)। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से कार्तिक शुक्ल द्वितीया (यम द्वितीया) तक चलने वाले दीपोत्सव का आरंभ इस बार धनतेरस 28 अक्टूबर से हो रहा है। इन पांच दिनों के दीप पर्व पर यमराज का भी दो दिन स्मरण किया जाता है। प्रथम धनतेरस पर तो दूसरे यम द्वितीया के दिन। धनतेरस के दिन धातु के बर्तन आदि की खरीदारी से लक्ष्मी प्रसन्न हो धन-धान्य से परिपूर्ण करती हैं।
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श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर कार्यपालक समिति के सदस्य व ज्योतिषाचार्य पं. ऋषि द्विवेदी के अनुसार कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी तिथि 27 अक्टूबर की शाम 5.13 बजे से लग रही है, जो 28 अक्टूबर की शाम 6.17 बजे तक रहेगी। शास्त्र के अनुसार धन त्रयोदशी को मृत्यु के देवता यमराज के निमित्त सायंकाल किसी पात्र में मिट्टी का दीपक रखकर तिल का तेल भरकर उसमें रुई की बत्ती जलानी चाहिए। इसके बाद दक्षिण दिशा की ओर मुख कर यमराज को प्रणाम करना चाहिए। इससे यमराज प्रसन्न होते हैं।
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इसी दिन लोकाचार में सोना, चांदी, पीतल या अन्य किसी धातु का सामान खरीदना चाहिए। रात में धातु निर्मित गणेश, लक्ष्मी व कुबेर के पूजन का विशेष महत्व है। इस बार धनतेरस अपने आप में अद्भुत फल देने वाला होगा। धनतेरस को हस्त नक्षत्र और अमृत योग का साथ होगा। इस दिन लक्ष्मी-गणेश का पूजन महालाभकारी होगा। ऐसा योग कई दशकों के बाद आ रहा है। इस बार पूजन का शुभ मुहूर्त शाम 6.39 से रात्रि 8.35 बजे तक है।
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मनेगी धन्वंतरि जयंती
धनतेरस का पर्व आयुर्वेद के जनक भगवान धन्वंतरि की जयंती के रूप में मनाया जाता है। समुद्र मंथन में जो रत्न प्राप्त हुए थे, उनमें प्रमुख स्थान भगवान धन्वंतरि का है। संपूर्ण वैद्य समाज इस दिन भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं।
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धनतेरस पर ही मय का पूजन
धनतेरस पर ही मय के पूजन का भी महत्व है। व्यक्ति का महत्व उसके कर्म और ज्ञान से होता है। न कि जन्म के आधार पर। दीप पर्व के पंच दिवसीय महोत्सव के प्रथम दिन धनतेरस पर भगवान धन्वंतरि के पूजन के अलावा मय दानव के पूजन की भी परंपरा उत्तर भारत में है। मय दानव के नाम पर ही एक दीपक इस दिन जलाया जाता है। लंकापति रावण के श्वसुर एवं मंदोदरी के पिता कश्यप ऋषि के पुत्र मय की गणना महान शिल्पियों में की जाती है। लंका के विशिष्ट भवनों का निर्माण मय द्वारा कराया गया था और महाभारत काल में भी वह महल जहां भूमि पर जल एवं जल में भूमि का भान होता था, वह भी मय द्वारा निर्मित किया गया था। किसी भी गुण का स्तर जब सर्वोच्च हो जाए तो वह ईश्वरीय हो जाता है और वह गुणी पूजनीय हो जाता है। इसी आदर्श के प्रतिबिंब में मय के नाम का दीप जलाकर शिल्प व शिल्पकार को सम्मान देने की परंपरा निभाई जाती है।