Dev Deepavali 2020 : जल अनुष्ठानों के महात्म्य-मान का शिखर प्रतिमान है देव दीपोत्सव
जीवनदायनी गंगा के अलावा काशी के लगभग सभी सरोवरों कुंडों पर दीपमालिकाएं सजाकर देव दीपोत्सव की सदियों पुरानी परंपरा भी वास्तव में जल अनुष्ठानों के महात्म व मान का शिखर प्रतिमान है। गंगा किनारे जाने और सुरसरि की असीम कृपा के प्रतीक आभार जताने का रंगारंग पर्वानुष्ठान है।
वाराणसी [कुमार अजय]। ऊं माधवाय नम:... ऊं केशवाय नम:...ऊं गोविंदाय नमो नम:...। इन तीन मंत्रों के साथ पवित्र जल का आचमन सनातन परंपरा से जुड़े हर धार्मिक अनुष्ठान के श्री गणेश की पहली प्रक्रिया है। स्नान पर्वों की अटूट श्रृंखला भी महाकुंभ की असीम महत्ता तक जाती है। भारतीय जीवन शैली में प्रमुख जलतीर्थों के रूप में पूजित नद-नदियों के साथ छोटे-बड़े सरोवरों, कूपों का कितना सत्व है व उनके संरक्षण का क्या महत्व है, यह संदेश सुनाती है।
जीवनदायनी गंगा के अलावा काशी के लगभग सभी सरोवरों कुंडों पर दीपमालिकाएं सजाकर देव दीपोत्सव की सदियों पुरानी परंपरा भी वास्तव में जल अनुष्ठानों के महात्म व मान का शिखर प्रतिमान है। गंगा किनारे जाने और सुरसरि की असीम कृपा के प्रतीक आभार जताने का रंगारंग पर्वानुष्ठान है। जहां तक गंगा की पवित्रता का प्रश्न है काशी में गंगास्नान करने वाले नेमीजन गंगा की शुद्धता से जुड़े अनुशासन को कर्तव्य की तरह निभाते हैं। घर पर स्नान करने के बाद ही सुरसरि की धारा में डुबकी लगाते हैं। गंगातट पर जूते-चप्पल के साथ आचमन पर भी सख्त रोक है। पवित्र धारा में कुल्ला करने, साबुन लगाने, पशु नहलाने यहां तक की वस्त्र प्रच्छालन तक पर शास्त्रों की टोक है। यह बात अलग है कि अनुशासन के बंध ढीले पड़ जाने के बाद चीजें बदल गईं। सब चलता है के लापरवाह खांचे में ढल गईं। देवदी पावली जैसे पर्व सही मायनों में रंगारंग उत्सव के बहाने गंगा तट तक आने, मइया से नेह लगाने और इन्हीं शास्त्रीय अनुशासनों के पाठ को दोहराने का एक अवसर है। यह तो हुई बात शास्त्रीय विधानों की। लोकचारों की चर्चा करें तो शिशु के मुंडन-नकछेदन से लगायत यज्ञोपवीत व विवाह जैसे सभी मंगल कारज में गंगा की गवाही जरूरी है।
गंगा पुजइया की रस्मों के बगैर हर क्रिया अपूर्ण है। इन रस्मों से बंधकर ही सही काशीवासी अपनी गंगा मां के पास आते हैं। मइया का अंचरा कचरा से मैला न हो इस सदइच्छा से दुग्धार्चन व आरती जैसे अनुष्ठानों को गंगा पूजन का माध्यम बनाते हैं। पुजइया की रस्म के साथ जुड़ी आर-पार के माला का रिवाज सही अर्थों में इस तट से उस तट तक गंगा की स्वच्छता के प्रति सदैव सचेत रहने की प्रतिज्ञा का ही एक प्रतीक है। देव दीपोत्सव की यशस्वी परंपरा भी दरअसल इन्हीं छोटी-छोटी ङ्क्षकतु आत्मीयता से परिपूर्ण लोकाचारों के वृहद स्वरूप का प्रकटीकरण है। उत्सव के बहाने गंगा व घाटों की सफाई, हर साल बाढ़ के चलते हुई टूट-फूट की मढ़ाई, गंगा तट की सीढिय़ों से लेकर देवालयों, भवनों की सफाई-पोताई से स्वाभाविक तौर पर गंगा व गंगा का आंचल निखर जाता है। गंगा को पूरी तरह समर्पित उत्सव एक संकल्प का प्रतीक बन जाता है। गंगा व वरूणा के अलावा इस उत्सव में घाटों की सीढिय़ां लांघकर नगर के सभी प्रमुख सरोवरों, कुंडों, कूपों तक विस्तार पाया है। सच कहें तो अब जाकर इस महापर्व को विस्तृत परिभाषा के साथ अपना सही अर्थ मिल पाया है। जरा बाहर भी नजर डालें। प्राचीन ईश्वरगंगी तीर्थ, पुष्कर तालाब, रामकुंड, सूर्यसरोवर की साफ-सफाई रंगरोगन का काम युद्धस्तर पर चलता दिख रहा है। नौजवानों, किशोरों की टोलियां फरूहा, खांची लिए अपने-अपने जलस्त्रोतों को संवारने और पर्व के पूरी भव्यता के साथ बाती बारने के काम में जुटी हुईं हैं।
पथरीले तटों की हद लांघकर नगर के टोलों-मोहल्लों तक पहुंच गया उत्सव
देव दीपावली पर्व को लोकोत्सव बनाने के प्रयासों को बल देने वाले काशीकेयों में से एक अब यश: शेष पं. धर्मशील चतुर्वेदी देव दीपावली उत्सव में भाग लेने के बाद सीढिय़ां चढ़कर जब घाट से नगर के बाट पर आते थे तो प्राय: उदास हो जाते थे। चटख रंगों के रसिया पंडित जी की एक ही अभिलाषा थी कि पथरीले तटों की हद तोड़कर देवों का यह उत्सव नगर के मोहल्ले-टोलों तक भी आए। चप्पे-चप्पे को उत्सवी रंगों में डुबो जाए। वे तो अब रहे नहीं पर उनकी अभिलाषा रंग ला रही है। पर्व की रंगीनियां एक-एक कर स्वत: स्फूर्त सभी बस्तियों को अपने आगोश में लिए जा रही हैं।