Coronavirus आपदा में जमा जमाया रोजगार बिखरा तो कई ने बदल दिया कारोबार का अंदाज
ऐसा भी कोई समय आएगा जब आपदा की मार से जमा जमाया रोजगार बिखर जाएगा किसी ने सोचा न था पर कोरोना की शक्ल में टूटा ऐसा कहर कि मंदी की मार से जिंदगी गई ठहर।
वाराणसी [कुमार अजय]। ऐसा भी कोई समय आएगा जब आपदा की मार से जमा जमाया रोजगार बिखर जाएगा किसी ने सोचा न था पर कोरोना की शक्ल में टूटा ऐसा कहर कि मंदी की मार से जिंदगी गई ठहर। जब विपदा की मार चूल्हे-चौके तक आई तो मजबूरी में जाने कितनों को सड़क पर आना पड़ा। बाना (नियत धंधा) बदलकर गृहस्थी का ताना-बाना बचाना पड़ा। मिलिए इधर से उधर हुए कुछ लोगों से जो अपनी चलती दुकान छोड़कर रेहड़ी लगा रहे हैं, बदले हुए वक्त की रफ्तार से कदम ताल मिला रहे हैं।
ट्रैवल के धंधे से बिस्किट के काउंटर तक
ये हैं विजय कुमार नवदुर्गा ट्रैवेल्स भदैनी के संचालक लगभग दो माह होने को आए एजेंसी लॉकडाउन के चपेट में है। न तो पर्यटन की कोई घरेलू बुकिंग न ही विदेशी पर्यटकों की आमद। जब दोनों हाथ खाली तो कुछ न कुछ तो करना ही था। विजय फिलहाल दुकान के आगे ही ब्रेड व बिस्किट का काउंटर लगा रहे हैं। समय बलवान के आगे सिर झुकाकर नयी रोजी के साथ रफ्तार मिला रहे हैं।
दूध-ब्रेड ने बचा ली गृहस्थी
नरहरपुरा नाटीइमली के गुलजार तिराहे पर पान की चलती दुकान है रूबी चौरसिया की। लॉकडाउन की घोषणा के बाद से ही दुकान का ताला खुलने की नौबत नहीं आई। एक दर्जन सदस्यों का परिवार रोजी-रोटी का कुछ तो जुगाड़ करना ही था सो भइया दुकान के बगल में ही काउंटर लगाकर फिलहाल दूध-दही-ब्रेड बेच रहे हैं और मना रहे हैं कि बुरा वक्त जल्दी से कट जाए ताकि वे फिर अपनी दुकान संभाल सकें।
मजबूरी जो न कराए
पद्मश्री चौराहे पर मुलाकात होती है नौजवान संदीप से, भाई रिक्शा ट्रॉली से बर्फ की सप्लाई करते हैं। कोरोना का ऐसा कहर टूटा कि मानो कमर ही टूट गई। रमजान के पवित्र माह में बर्फ की जबर्दस्त मांग होती है। मगर वक्त की मार के आगे सब ठन-ठन गोपाल। बर्फ का कारखाना दो महीने से बंद है। कैसी भी विपत्ति हो बच्चों का मुंह तो देखना ही पड़ता है। सो भईया चौके का चुल्हा बुझने न पावे इस गरज से ट्रॉली पर ही लहसुन, प्याज लादकर गली-गली दे रहे हैं फेरी। रोज सुबह उठकर दऊब से विनती करते हैं कि प्रभु अब दुनिया के उबारे में जिन करा देरी।
मजबूरी जो न करावे
अस्सी चौराहे पर ठेला लगाए खड़े हैं सचिन कुमार। भूंजा दाना का इनका ठेला दूर-दूर तक मशहूर हुआ करता था। तिजहरिया के समय की छोटी भूख मिटाने के लिए आसपास के दफ्तरों के बाबू और इधर-उधर काम कर रहे मजदूरों की भीड़ लगती थी। दफ्तर और ठेके दोनों बंद हैं। सो लॉकडाउन के दो-चार दिनों के बाद ही फाकों की नौबत आ गई। घर चलाने के लिए बाना बदलकर सब्जियों का ठेला लगा रहे हैं। खींच खांचकर गृहस्थी की गाड़ी चला रहे हैं।