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ई हौ रजा बनारस : 46 वर्षो से मुल्तवी है बगइचा वाले जगन्नाथ जी का 'टूर प्लान'

वाराणसी में रथयात्रा की रौनकों में गोते लगा रहे लोग 46 साल पुरानी अनोखी रद हुई यात्रा को नहीं जानते।

By JagranEdited By: Published: Mon, 16 Jul 2018 09:30 AM (IST)Updated: Mon, 16 Jul 2018 09:30 AM (IST)
ई हौ रजा बनारस : 46 वर्षो से मुल्तवी है बगइचा वाले जगन्नाथ जी का 'टूर प्लान'
ई हौ रजा बनारस : 46 वर्षो से मुल्तवी है बगइचा वाले जगन्नाथ जी का 'टूर प्लान'

कुमार अजय, वाराणसी : रथयात्रा महोत्सव की रौनकों में गोते लगा रहे शहर बनारस के बहुत से लोगों को शायद यह जानकारी न हो कि शिवपुरी काशी की परंपरागत पांच रथयात्रा उत्सवों के अलावा एक छठवां प्राचीन रथयात्रा मेला भी यहां अस्सी क्षेत्र में सजता था। शहर दक्षिणी के एक बड़े क्षेत्र में इसकी मशहूरी का डंका बजता था।

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हम बात कर रहे हैं अस्सी क्षेत्र के ही छोटा नागपुर बगइचा वाले जगन्नाथ जी और उनसे जुड़े आषाढ़ी उत्सव रथयात्रा की जो कभी इस शहर के मशहूर मेलों की सूची में शुमार हुआ करता था। काशी नगरी के इंद्रधनुषी उत्सवी कैनवास पर एक चटख रंग अपना भी भरता था।

क्षेत्रीय नागरिक अनिल चौरसिया की सूचना पर हम स्वामी जगन्नाथ के दर्शन की लालसा से छोटा नागपुर बगइचा जाते हैं और एक भव्य मंदिर में प्रभु को भइया बलभद्र और भगिनी सुभद्रा के साथ विराजमान पाते हैं। परंपरागत आषाढ़ी उत्सव के दिनों में भी जगन्नाथ स्वामी अपने प्रासाद में ही अनापेक्षित उपस्थिति मन को खटकती है। संवाद सूत्र की तलाश में हमारी नजरें इधर-उधर भटकती हैं। तभी भेंट हो जाती है मंदिर के मुख्य अर्चक ध्रुवजी पांडेय से। वह बड़े ही बुझे मन से हमें सारा वृत्तांत सुनाते हैं। विग्रह नित्य पूजित हैं मगर 'देवरथ' के क्षतिग्रस्त हो जाने की वजह से रथयात्रा उत्सव का क्रम 1971-72 से ही भंग है, यह बताते हुए एकदम से भावुक हो जाते हैं।

मंदिर के इतिहास की चर्चा करते हुए ध्रुवजी जानकारी देते हैं कि देश का यह संभवत: एक मात्र देवालय है जहां एक ही स्वरूप के दो विग्रह पूजित हैं। ध्रुवजी के अनुसार इनमें से लघु आकार वाले काष्ठ विग्रहों के स्थापन की कहानी 300 वर्षो से भी अधिक पुरानी है। मुगल काल में देवालयों के ध्वंस के क्रम में जब उत्कल राजपरिवार द्वारा बनवाया गया यह मंदिर भी तोड़ दिया गया तो उस दौर के एक वीतराग संन्यासी हरिदासजी ने काष्ठ प्रतिमाओं को अस्सी घाट पर ही संरक्षित कर दिया। आगे के दिनों में पुणे (महाराष्ट्र) के पेशवाओं ने एक नया मंदिर बनवा कर स्वामी जगन्नाथ और उनके कुटुंब (भइया बलभद्र और बहिन सुभद्रा सहित) को यहीं स्थापित कर दिया। अर्चक नियुक्त हुए ध्रुवजी के पुरखे पं. गोपाल दत्त पांडेय। आगे चलकर 1856 ई. के दौरान अंग्रेजी शासन ने देवालयों के बंदोबस्त के क्रम में मंदिर की देखभाल का जिम्मा छोटा नागपुर रियासत (अब झारखंड) के राजाओं को सौंप दी। इसी परिवार की रानी देवी लक्ष्मणा ने वर्ष 1889 में एक बार फिर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया और लघु काष्ठ विग्रहों के क्षरण को देखते हुए तीन नए काष्ठ विग्रह भी देव पीठिका पर स्थापित कराए। एक दैवीय स्वप्नादेश को मान देते हुए पुरानी लघु प्रतिमाएं भी विसर्जित नहीं की गई। उपेक्षित पड़ा है देवरथ

रथ टूट जाने और एक पारंपरिक उत्सव का सिरा छूट जाने से बहुत दुखी हैं एकनिष्ठ शिक्षक पं. ध्रुव पांडेय। मंदिर प्रांगण के पूर्वी छोर पर क्षतिग्रस्त पड़े काष्ठ रथ की चर्चा करते हुए उनका गला भर आता है। कहते हैं सिर्फ आपसी खींचतान है राह का रोड़ा। प्रबंधन अगर टूटा रथ भी सुपुर्द कर दे तो फिर से शुरू हो सकता है यात्रा का रेला। पुन: इसी अस्सी क्षेत्र में सज सकता है रथयात्रा का एक और सजीला मेला।


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