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बुढ़वा मंगल : काशी में गंगा की लहरों पर 17वीं सदी से चली आ रही अनोखी परंपरा

बनारस में लखनऊ के नवाबों के प्रतिनिधि मीर रुस्तम अली ने 17वीं सदी के उत्तरादर्ध में बुढ़वा मंगल को नई रंगत के साथ स्थापित किया।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Sat, 14 Mar 2020 04:38 PM (IST)Updated: Sat, 14 Mar 2020 04:38 PM (IST)
बुढ़वा मंगल : काशी में गंगा की लहरों पर 17वीं सदी से चली आ रही अनोखी परंपरा
बुढ़वा मंगल : काशी में गंगा की लहरों पर 17वीं सदी से चली आ रही अनोखी परंपरा

वाराणसी [कुमार अजय]। काट दे लहासी (बजड़ा बांधने का मोटा रस्सा), संभार के राजा काशी। मौज मस्ती के चरम पर पहुंचे उत्सवी उमंग की रौ में निकली इस ललकार की गूंज अब कभी नहीं सुनाई देती। वरना कभी वह दौर था सतरंगी सदी के उत्तरार्ध का जब किसी एक हांक के साथ चमक उठती थी दर्जनों दंगारियां। उनकी धार का वार महफिल के लिए सजे बजड़ों को बांधने वाली रस्सी की गांठ पर और तीर सी छूटी ये नौकाएं सीधे गंगा की गोद में सजे बुढ़वा मंगल उत्सव की पांत में पहुंच जाती थीं।

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नाम बुढ़वा मंगल और मौज मस्ती का ऐसा दंगल कि साठा को भी पाठा बना दे। कहीं सफेद पर्दों से सजी जलपरी का जलवा तो कहीं गुलाबों की सुगंध से महमह तरंगिनी का ठाट। एक तरफ गंगा की लहरों पर इठलाती श्वेतशंखी तो दूसरी तरफ बड़े नाजों से बलखाती महाराज बनारस की मोरपंखी। तत्कालीन अंगे्रज लाट की पत्नी लेडी डफरिन डी. एक बार दर्शक बनीं काशी के मन मिजाज की नुमाइंदगी क रने वाले इस जल उत्सव की।

ऐसी मंत्रमुग्ध कि डायरी में टांकने को शब्दों तक का टोटा। बस इतना ही लिखा अद्भुत, अवर्णनीय ...। नृत्य, संगीत की महफिलों से सजी नौकाओं की अठखेलियों वाला दुनिया का सबसे अनूठा जल उत्सव...।

नौकाओं के अलग अलग नाम, साज सज्जा के अनोखे सरंजाम, हर महफिल की अपनी अदा। धमार व चैती की हर पेशकश पर रसिक जन फिदा। छोड़कर दुनिया भर के काम तीन रातें बस रंगारंग प्रस्तुतियों के नाम। कई रसिया तो ऐसे जो दरी, चादर लेकर इन तीन दिनों तक यहीं के होकर रह जाते थे।

वहीं कभी काशी के वैभव के प्रतीक रहे इस अनूठे उत्सव की परंपराओं को सहेजने की गरज से अगले मंगलवार को जब पर्यटन और संस्कृति विभाग प्रतीक आयोजन करेगा तो बहुत सारे लोगों को उत्सव के उत्कर्ष काल की कहानियां याद आएंगी। बताएंगी की किस तरह अवांछनीय तत्वों की हरकतों का निशाना बनकर एक जीवंत उत्सव  दम तोड़ गया। यादों के इस झुरमुट में बार-बार कौंधेंगे वो चेहरे भी जिन्होंने इस आयोजन की रंगीनियों को सहेजने के जतन में पूरी जिंदगी खपा दी। पुराने लोग बताते हैं कि बाद के दिनों में कवि राहगीर जी, घनश्याम गुप्त व भानु जी जैसों ने अथक प्रयास किए। समय की भूलभुलैया में गुम गई इस परंपरा को नई रंगत देने के। परिणाम यह कि प्रतीक रूप में ही सही उत्सव की पहचान बनी रह गई।

रुस्तम अली ने सजाया, वृद्ध अंगारक उत्सव

बनारस में लखनऊ के नवाबों के प्रतिनिधि मीर रुस्तम अली ने 17वीं सदी के उत्तरादर्ध में बुढ़वा मंगल को नई रंगत के साथ स्थापित किया। यह सही है, मगर इसके पहले भी काशी में वृद्ध अंगारक उत्सव के नाम से आयोजन प्रचलन में था। इसके प्रमाण मिलते हैं। हालांकि चैत्र कृ ष्ण पक्ष के आखिरी मंगल को मनाए जाने वाले इस उत्सव का स्वरूप उन दिनों सामूहिक जल यात्रा तक ही सीमित हुआ करता था।

बुढ़वा मंगल क्यों

बुढ़वा मंगल की उपाधि इसलिए कि चैत्र कृ ष्ण पक्ष के आखिरी मंगलवार तक पहुंचते पहुंचते फगुनहट और मस्ती की खुमार थक हारकर बूढ़ी हो चुकी होती थी। दरअसल, यह था होलिकोत्सव के विराम का पर्व और किसी भी विदा पर्व के साथ थकान का भावों का जुड़ जाना बिल्कुल सहज व स्वाभाविक। बताया जाता है शुरूआती दौर में उत्सव के  साथ संकटमोचन हनुमान जी के दर्शन-पूजन का भी विधान जुड़ा था। इसीलिए हनुमान जी क ा प्रिय दिन मंगलवार ही इसकी पहचान बन गया।


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