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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादें प्रवासी भारतीय दिवस पर काशी में होंगी जीवंत

वाराणसी में प्रवासी दिवस को लेकर तैयारियां जोर शोर से हो रही हैं। ऐसे में यहां आने वाले प्रवासियों के मन में अपने देश के प्रति लगाव नजर आ रहा है।

By JagranEdited By: Published: Fri, 04 Jan 2019 02:49 PM (IST)Updated: Fri, 04 Jan 2019 02:54 PM (IST)
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादें प्रवासी भारतीय दिवस पर काशी में होंगी जीवंत
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादें प्रवासी भारतीय दिवस पर काशी में होंगी जीवंत

वाराणसी, जेएनएन। : अपने देश की माटी की महक व रिश्तों की ठसक भला किसे नहीं भाती। इससे दूर होने का दर्द उनसे पूछिए जिन्हें सात समंदर पार चहकते त्योहारों की याद आती है। रोजगारी की विवशताएं चाहे विदेश के किसी कोने में खींच ले जाएं, धन वैभव से जितना भी सींच डालें लेकिन भारतीय मन अपनी मानव सुलभ भावनाओं को कैसे संभालें। इस ने दक्षिण अफ्रीका में बैरिस्टरी कर रहे महात्मा गांधी को 1915 में नौ जनवरी को दक्षिण अफ्रीका से अपने वतन आने को विवश किया। इसे केंद्र सरकार ने प्रवासी भारतीय दिवस उत्सव का नाम देते हुए अपनों को जड़ों से जोड़े रखने का जतन किया लेकिन अपने बनारस की माटी में पले-बढ़े प्रवासियों को तीज-त्योहारों पर यहां की अल्हड़ मस्ती खींच ही ले आती है। दुनियावी भागदौड़ किनारे रख उन्हें गंगा किनारे ले जाती है, गलियों में घुमाती है, उसमें सैरसपाटे के वे दिन याद दिलाती है और धरोहरों की सैर भी कराती है। इसका अंदाजा इस बात से ही लगा सकते हैं कि भारत आने वाले पर्यटकों में इनकी भी हिस्सेदारी कम नहीं होती। गंगधार पर किलोल करती नौका की सवारी हो या दशाश्वमेध घाट पर होने वाली नैत्यिक सांध्य गंगा आरती में बैठने की बारी हो, अरसे बाद इसके बीच आने में आंखें जरूर नम होती हैं। इस बार जब 15वां प्रवासी भारतीय दिवस बनारस में मनाया जा रहा तो दुनिया के विभिन्न देशों में जा बसे बनारसियों के कानों में 'घर आ जा परदेशी तेरा देश बुलाए रे..' जैसे गीतों की धुन बार -बार घुल जा रही हैं। इसकी तैयारियां तो महीनों पहले शुरू हो गई थीं लेकिन अब जब गिनती के दिन बचे हैं दोनों ही ओर बेचैनी है। एक तरफ अगवानी की थाल सज रही तो दूसरी तरफ पैकिंग की लिस्ट बन रही।

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तुलसीपुर-महमूरगंज के नितिन श्रीवास्तव सात वर्षो से अपने वतन से दूर हैं। पहले के पांच साल दुबई में तो पिछले दो साल से फ्रांस में प्रोजेक्ट मैनेजर हैं, भले दूर देश में हों लेकिन मन अपने ही वतन में रहता है। जब भी थोड़ी फुर्सत मिली कि फ्लाइट पकड़ी और बनारस की गलियों में घूमने की साध पूरी कर ली। उन्हें प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन में आना है लेकिन बिटिया रानी मम्मी के साथ बनारस आ चुकी हैं। नितिन कहते हैं कि बचपन से विदेश में बसने का सपना था, लेकिन अपना वतन तो अपना ही होता है। बनारस के ही सुनील कुमार सिंह का संयुक्त अरब अमीरात में बड़ा कारोबार है। साख यह कि ट्री ट्रेडर्स आफ मिडिल ईस्ट के चेयरमैन लेकिन मन तो बनारस में ही बसता है। शिवपुर के डा. अंबरीश सिंह चीन में मैटीरियल साइंस एंड इंजीनिय¨रग के प्रोफेसर लेकिन उन्हें अपने देश की मिंट्टी की गमक अक्सर नथुनों में समाती प्रतीत होती है। यह बात विज्ञान से कोसों दूर लेकिन जज्बात के आगे यह बातें धरी रह जाती हैं। ऐसे ही तमाम नाम हैं जो जन्मना बनारसी थे या यहां भी विभिन्न जिलों से प्रवासी की तरह आए और बनारसी हो गए, अब दूर देश में जाकर अपने देश की याद दिलों में आबाद है। उनमें अपने वतन के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा भी है जिसका बीएचयू के पूर्व छात्रों की लिस्ट से अंदाजा लगाया जा सकता है।


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