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Azadi Ka Amrit Mahotsav : शहरों से गांवों तक फैली स्वातंत्र्य संग्राम की विरासत को न सहेजा जाना दुर्भाग्यपूर्ण

Azadi Ka Amrit Mahotsav स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव काल में स्वातंत्र्य संग्राम की स्मृतियों को सहेजा जाना अत्यंत आवश्यक है जिससे नई पीढ़ी प्रेरणा ले सके और अपने आसपास बिखरे गौरवशाली इतिहास से अवगत हो सके। इस विरासत को सहेजने का प्रयास 75 वर्षों में नहीं किया जा सका।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Sun, 07 Aug 2022 08:51 PM (IST)Updated: Sun, 07 Aug 2022 08:51 PM (IST)
Azadi Ka Amrit Mahotsav : शहरों से गांवों तक फैली स्वातंत्र्य संग्राम की विरासत को न सहेजा जाना दुर्भाग्यपूर्ण
स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव काल में स्वातंत्र्य संग्राम की स्मृतियों को सहेजा जाना अत्यंत आवश्यक है,

जागरण संवाददाता, वाराणसी : स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव काल में स्वातंत्र्य संग्राम की स्मृतियों को सहेजा जाना अत्यंत आवश्यक है, जिससे नई पीढ़ी प्रेरणा ले सके और अपने आसपास बिखरे गौरवशाली इतिहास से अवगत हो सके। यह अत्यंत दुर्भाग्य का विषय है कि इस विरासत को सहेजने का प्रयास विगत 75 वर्षों में नहीं किया जा सका।

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हमने इतने ही दिनों में उन्हें भुला-बिसरा दिया है। अब जब उन्हें सहेजने का प्रयास किया जा रहा है तो तथ्याें के संकलन, स्थलों के चिह्नांकन और ऐतिहासिक विरासत के चिह्न खोजने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। यह कहना है वरिष्ठ साहित्यकार व उदय प्रताप स्वायत्तशासी महाविद्यालय में हिंदी विभाग के प्राध्यापक रहे प्रो. रामसुधार सिंह का। वह रविवार को जागरण कार्यालय में आयोजित ‘स्वतंत्रता संग्राम और अपना जनपद’ विषयक साप्ताहिक अकादमिक विमर्श में बोल रहे थे।

लिखा जा रहा प्रदेश के सभी 75 जनपदों का इतिहास

उन्होंने बताया कि प्रदेश सरकार द्वारा राज्य के सभी 75 जनपदों का अलग-अलग इतिहास लेखन कराया जा रहा है। इन पुस्तकों का 15 अगस्त को मुख्यमंत्री द्वारा विमोचन किया जाएगा। पूरी पुस्तक को सात अध्यायों में विभक्त किया गया है, इनमें पहला अध्याय ‘जनपद का सांस्कृतिक पौराणिक इतिहास’ है, दूसरा ‘1857 के पूर्व का जनपद’, तीसरा ‘1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जनपद की भूमिका’, चौथा ‘1942 के पूर्व स्वतंत्रता संग्राम’, पांचवां ‘1942 के आंदोलन में जनपद का संग्राम’, छठां ‘1942 के आंदोलन में जनपद के गांवों की भूमिका’, सातवां, ‘स्वतंत्रता के बाद जनपद के बलिदानी’ निर्धारित किया गया है।

आ रही काफी कठिनाई

प्रो. सिंह ने बताया कि 1857 का संग्राम रहा हो या उसके बाद का अथवा 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, पूरे देश के गांव-गांव तक इसकी लहर थी। हर जन-मन इसमें लगा था। प्रत्येक गांव स्तर तक इसका प्रभाव पड़ा था, लेकिन इसके तथ्य उपलब्ध नहीं हैं। उन्हें सहेजने का प्रयास नहीं किया गया। इसलिए अब इन पुस्तकों के लेखन में तथ्यों को जुटाने में काफी कठिनाई आ रही है।

उन ऐतिहासिक स्थलों, बलिदानियों को जिन पेड़ों पर लटकाया गया उनकी स्थिति का पता करना काफी मुश्किल भरा काम हो रहा है। उन्होंने बताया कि उन्हें चंदौली जनपद का इतिहास लिखने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। चूंकि चंदौली उस समय वाराणसी का ही अंग था, इसलिए जो भी घटनाक्रम हुए वे वाराणसी के नाम अंकित हैं, नामजद क्रांतिकारियों को भी उनके गांव के नाम से वाराणसी जनपद का बताया गया है। अब उनमे से चंदौली का हिस्सा अलग करके ढूंढना काफी समस्यात्मक है।

ठाकुर प्रसाद सिंह की पुस्तक में मिला वर्णन

प्रो. सिंह ने बताया कि पुस्तक लेखन के दौरान काफी तथ्य ठाकुर प्रसाद सिंह की पुस्तक ‘स्वतंत्रता आंदोलन में वाराणसी का योगदान’ से मिले। हालांकि वह पुस्तक ही दुर्लभ है। विश्वविद्यालय प्रकाशन ने उसे प्रकाशित किया है, वहां भी नहीं मिली। चंदौली के क्रांतिकारी राजनारायण सिंह के भतीजे से उसकी फोटोकापी मिली। उसमें 1920-21 की घटनाओं, छात्र आंदोलनों का वर्णन है। केंद्र में वाराणसी ही है। उसमें चंदौली शामिल है।

गए चंदौली के गांव-गांव, खूब मिली कहानियां

इसके बाद वह चंदौली के गांव-गांव गए, वहां जनमानस में अनेक किंवंदंतियां व किस्से हैं। पता चला कि उन दिनों क्या आक्रोश था लोगों के मन में अंग्रेज शासन के प्रति। क्रांतिकारियों की एक आवाज पर हजारों लोग एकत्र हो जाया करते थे। थानेदार चिल्लाता रह जाता था कि आगे बढ़े तो गोली चला देंगे लेकिन कौन सुनता, लोग बढ़ते चले जाते थे। धानापुर के हीरा सिंह, रघुनाथ सिंह, महंत सिंह को गाेली लगी थी।

उन्हें लेकर कामता सिंह अस्पताल जा रहे थे। कमालपुर के पास एक गांव के निकट हीरा सिंह का निधन हो गया। कामता सिंह ने उस गांव का नाम ही शहीद गांव रख दिया। धानापुर, सकलडीहा, सैयदराजा की घटनाएं तो इतिहास में अंकित हैं परंतु मौके पर बलिदानियों के स्मारक या शिलापट्ट हर जगह नहीं लगे हैं।

बनारस था स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र

क्रांति की आग बंगाल और पंजाब में तीव्रतम थी। बनारस बीच में पड़ता था, इसलिए लोगों का यहां आना जाना लगा रहता था। शचींद्रनाथ सान्याल, रासबिहारी बोस, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी ने इसके केंद्र ही बना दिया। बीएचयू के छात्रावास, बनारस की गलियां, काशी विद्यापीठ, कर्मनाशा के किनारे के जंगल क्रांतिकारियों के छिपने के महत्वपूर्ण स्थल थे परंतु आज उन स्वातंत्र्य तीर्थों पर इनका उल्लेख न किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। इन स्थलों का विकास किया जाय और नई पीढ़ी को उससे अवगत कराया जाय।

आरंभ में विषय स्थापना करते हुए स्थानीय संपादक भारतीय बसंत कुमार ने अंत में आभार प्रकट करते हुए इस योजना पर समाचार पत्र को अपनी भूमिका निर्वहन करने का आश्वासन दिया।


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