Azadi Ka Amrit Mahotsav : अंग्रेजी हुकूमत को चोट पर चोट पहुंचाते रहे जेपी, धोती की रस्सी बना लांघ गए जेल
गुलामी की जंजीरों को खंड-खंड करने की बेताबी में जयप्रकाश नारायण दुश्मनों की जुल्म ज्यादती की कभी परवाह नहीं किए। अलबत्ता अंग्रेजी सरकार को चोट पर चोट देते रहे। बार-बार जेल जाने की उनकी आदत सी हो चली थी।
बलिया, लवकुश सिंह : आजादी की जंग में जिले के क्रांतिकारियों के एक से बढ़कर एक किरदार रहे हैं। 1857 में बलिया के मंगल पांडेय ने अंग्रेज अफसर पर पहली गोली दाग बगावत की शुरुआत की। 1942 की अगस्त क्रांति में नौ अगस्त से तो जिले के कोने-कोने में क्रांति का ज्वाला भड़क उठी थी। चित्तू पांडेय ने जिले को आजाद घोषित किया। इस कड़ी में एक नाम सिताबदियारा के लोकनायक जयप्रकाश नारायण का भी है। देश में अमूमन उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरोध के लिए जाना जाता है, लेकिन आजादी की जंग में भी उनके किरदार और भी गौरवान्वित करने वाले हैं।
गुलामी की जंजीरों को खंड-खंड करने की बेताबी में जयप्रकाश नारायण दुश्मनों की जुल्म ज्यादती की कभी परवाह नहीं किए। अलबत्ता अंग्रेजी सरकार को चोट पर चोट देते रहे। बार-बार जेल जाने की उनकी आदत सी हो चली थी। यही कारण था कि कभी अखबारों में छपरा कांग्रेस का दिमाग गिरफ्तार तो कभी हजारीबाग जेल से भागने की घटना ने अंग्रेजों की नींद उड़ा दी। आठ अगस्त 1942 में कांग्रेस कमेटी के मुंबई अधिवेशन में जब महात्मा गांधी ने ''करो या मरो'' का मंत्र देते हुए ब्रिटिश हुकूमत भारत छोड़ो का शंखनाद किया तो अगले दिन सूरज निकलने से पहले ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन अंग्रेजों भारत छोड़ों की चिंगारी देश भर में भड़क उठी थी। बलिया, बंगाल में मेदिनापुर, महाराष्ट्र में सतारा कई दिनों तक स्वतंत्र रहे। उस दौरान जेपी को हजारीबाग जेल में बंद किया गया था। तब वह 40 वर्ष के थे। जेपी जेल से बाहर आने को व्याकुल थे।
बार-बार उन्हें इस बात का पछतावा हो रहा था कि ऐसी स्थिति में वह देश के लिए कुछ नहीं कर पा रहे है। अंतत: जेल से निकलकर भागने का निश्चय किया। नौ नवंबर 1942 को दिवाली का त्योहार था। जेल में सभी कर्मचारियों के लिए दावत का आयोजन था। रामवृक्ष बेनीपुरी इस कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे।
वातावरण अपनी मस्ती में झूम रहा था। उसी समय जेपी अपने पांच अन्य साथियों के साथ धोतियों की रस्सी बनाकर एक मिनट में जेल की दीवार लांघ गए। यही वह समय था जब जेपी के निजी सचिव जगदीश बाबू जो जेपी ट्रस्ट जयप्रकाशनगर पर आजीवन रहे, उनके काफी नजदीकी हो गए। पुस्तक राजहंस में प्रकाशित जेपी की जीवनी में इसका विस्तृत उल्लेख है।
अंडरग्राउंड काम करने वालों से वाराणसी में मिले
जेपी दो दिनाें के बाद बनारस पहुंचे और यूनिवर्सिटी में रुके। दिल्ली, मुंबई में अंडरग्राउंड काम करने वालों से यहीं पर संपर्क किया। सबमें नई जान आ गई। मजदूरों, छात्रों और अमेरिका के सेना अधिकारियों को भी पत्र लिखा। जेपी को अब गुरिल्ला स्वयं सेवकों की आवश्यकता थी जो अंग्रेजी हुकूमत के दस्तों पर छापा मारकर अपना कब्जा बनाए रखें। इसका नाम आजाद हुकूमत रखा गया। अपना ब्राडकास्टिंग स्टेशन भी कायम किया गया। इसके संचालक राम मनोहर लोहिया रखे गए।
जेपी पर यातना से जर्रा-जर्रा कांप उठा
अपनी योजना के क्रम में ही जेपी फ्रंटियर मेल से रावलपिंडी जा रहे थे। उन्हें कश्मीर जाकर पठानों से संपर्क करके उत्तर पश्चिम में नई क्रांति का मोर्चा खोलना था। इस बात की भनक अंग्रेजों को लग गई। वे ट्रेन में आकर जयप्रकाश से टिकट मांगने लगे। रेलवे अफसर ने कहा आप जयप्रकाश नारायण है? जेपी ने कहा नहीं, मेरा नाम एसपी मेहता है। इतने में उस अफसर ने जेपी पर अपना रिवाल्वर तान दिया।
जयप्रकाश समझ गए कि अब खेल खत्म हो गया। लाहौर पहुंचने पर उनके हाथ में हथकड़ी डाल दी गई। किले के अंदर एक माह तक काल कोठरी में रखा गया। 20 अक्टूबर 1943 से जयप्रकाश पर यातनाएं शुरू हुई। सवाल पूछे गए कि योजना के संबंध में कुछ बता दें। कुर्सी में बांध कर भी पीटा, लेकिन इस भारत मां के सपूत ने यह सिद्ध कर दिया कि तुम चाहे जितनी भी यातनाएं दे लो, मुझसे कुछ भी हासिल नहीं होगा।