ई हौ रजा बनारस : सींचती उम्मीदें टेर आंगन के गीत की
कुमार अजय, वाराणसी : 'सुए चोल वाली गरज रही परवत पर माला लिए खड़ा माली..' गायन विधा की औपचारिक बंदिशों
कुमार अजय, वाराणसी : 'सुए चोल वाली गरज रही परवत पर माला लिए खड़ा माली..' गायन विधा की औपचारिक बंदिशों से भरी थी इस 'अंगनाई गीत' की टेर, बरसों बाद जब कानों से टकराती है, यकीन मानिए रोम-रोम पुलकित कर जाती है। व्रत पर्व निर्जला एकादशी की आधी रात हमारी बैठकी है पुरवा बयारों के साथ अठखेलियां करते प्रसिद्ध शीतला घाट की एक पुरोहिती चौकी पर। हमारे ठीक सामने मां शीतला के मंदिर के नीचे वाले पथरीले प्लेटफार्म पर जमी महिलाओं की एक महफिल उद्गम है इस सुरीली तान की।
लोक परंपराओं की संवाहक नगरी काशी में इस तरह के आयोजन प्राय: रोज की बात है, मगर पूछने पर पता चलता है कि यह महफिल कोई आकस्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि उस परंपरा का हिस्सा है जो हर साल निर्जला एकादशी पर्व की रात इसी ठौर पर आकार पाता है, आपा-धापी के इस दौर में प्राय: बिखर चुकी शहर बनारस के अंगनाई गीतों की विधा को सहेजने का इरादा जताता है।
हमारे साथ बैठे अपने ताड़ के हथपंखे से 'पुरवा बयार' को आवाहन देते शीतला मंदिर के महंत आचार्य शिव प्रसाद पांडेय बताते हैं कि सुर-ताल की नगरी काशी में गायकी की विविध विधाओं के साथ अंगनाई की गीत-गवनई की भी एक अटूट श्रृंखला रही है। मांगलिक आयोजनों के समय घर-आंगन को रौनकों से सराबोर कर देने वाली यह लोकविधा लॉन पार्टियों के दौर में अब अंगुलियों पर गिनी जा सकने वाली कुछ पेशेवर गौनहारिनों की जर्जर 'गाना वाली कॉपी' तक ही सीमित रह गई है।
महंत जी के अनुसार बहुत कम लोगों को पता है कि काशी की इस लुप्त होती परंपरा की लड़खड़ाती थाती को कोई ढाई दशक पहले आगे बढ़कर हाथ दिया लक्सा वाली राधा अम्मा ने। एक मध्यम परिवार की घरनी राधा अम्मा अपनी इस कोशिश के तहत शहर के टोले-मुहल्लों में नेवता पठा कर इस खास रात में महिलाओं को शीतला घाट पर जुटाने लगीं, घरेलू गीतों की यह ऐतिहासिक महफिल सजाने लगीं और एक थाती को सहजने की अपनी कोशिशों को परवान चढ़ाने लगीं। अस्वस्थता की मजबूरी में बीते तीन-चार सालों से राधा अम्मा सालाना महफिल में नहीं आ रही हैं किंतु मंजू देवी, शैल कुमारी, तारा देवी जैसी उनकी संगिनियां उनके जतन को आगे बढ़ा रहीं हैं।
रात का तीसरा पहर.. आकाश में सप्तर्षि मंडल का अवसान। इधर गीत-गवनई की महफिल जवान। राधा अम्मा की स्नेह पात्र मंजू देवी बताती हैं कि पर्व से जुड़ा होने के कारण आयोजन में पचरा जैसी विधाओं के गीत ज्यादा होते हैं किंतु आयोजन के उद्देश्यों को बल देने के लिए सोहर, कजरी जैसी विधाओं को एक साथ लोक पर्वो से जुड़े गीतों की भी प्रस्तुतियां होती हैं। आंचल की फहरान वाली आंगनी नृत्य के ठुमके भी देखने को मिल जाते हैं।
बताती हैं शैल- आयोजन के लिए बहुत कुछ जोड़ने और जुटाने की मशक्कत नहीं करनी पड़ी। एक पारिवारिक आयोजन की तरह घाट वालों ने आयोजन को हाथोंहाथ संभाल लिया। महफिल में शामिल ज्यादातर संगिनियों का उस दिन व्रत होता है पर बाकी के लिए चाय-नाश्ता तक व्यवस्था घाट के रहनवार और दुकानदार संभालते हैं।
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हरकारे से नेवता
मंजू बताती है कि अम्मा ने जब महफिल की शुरुआत की तो टोले-मुहल्लों में हरकारे से नेवता भेजा गया, यह सिलसिला अब भी जारी है। उनका कहना है कि आयोजन बहुआयामी है। एक तो गंगा माता और शीतला मइया से भेंट हो जाती है, दूसरे निर्जला व्रत की कठिन रात गीत-गवनई के बीच चुटकियों में कट जाती है, इसी बहाने हर साल राधा अम्मा के संकल्प को भी नई सांस मिल जाती है।