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अबकी अक्षय नवमी पर, दगेगा अहरा अंवरा तर, सोशल मीडिया रस्म-रिवाजों को दे रही मान

फेसबुक पर तीज त्योहारों और उनके सामाजिक वैज्ञानिक पक्षों को लेकर विमर्श का दौर चल रहा है। सोशल मीडिया ने रस्मों रिवाजोंा को पहचान देने का कार्य किया है।

By Edited By: Published: Fri, 16 Nov 2018 02:58 PM (IST)Updated: Fri, 16 Nov 2018 03:11 PM (IST)
अबकी अक्षय नवमी पर, दगेगा अहरा अंवरा तर, सोशल मीडिया रस्म-रिवाजों को दे रही मान
अबकी अक्षय नवमी पर, दगेगा अहरा अंवरा तर, सोशल मीडिया रस्म-रिवाजों को दे रही मान

वाराणसी, जेएनएन। दोस्तों-यारों के बीच 'मॉल कल्चर' के सबसे बड़े अलमबरदार और खुशगवार पार्टियों के रसिया सामने घाट निवासी अजय ओझा को इस दफा 'कालंबसी' उत्साह के साथ एक अदद आंवले के पेड़ की तलाश में भटकते देखना खुद में एक अनूठा अनुभव था। मित्र ने अंतत: अस्सी मुहल्ले के गोयनका विद्यालय प्रांगण में एक आमलक वृक्ष ढ़ूंढ़ लेने के बाद बाकायदा फोन करके अपनी इस सफलता के बारे में बताया। इस बार गुरु अपनी धमक्कड़ी पार्टी अक्षय नवमी को जगाएंगे, 'अंवरा तरे' अहरा दगा कर मित्रों की पंगत जिभाएंगे।

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मित्रवर को यह आइडिया फेसबुक ने सुझाया है। बदलते दौर में भी अपनी धरोहरी आयोजनों को हम कैसे सहेज सकते हैं यह फार्मूला बताया है। आम तौर पर अंवरा तरे अहरा दगाने जैसी परंपराओं को ले कर नाक-भौं सिकोड़ने वाली नई पीढ़ी का यकबयक इन रस्म-रिवाजों को लेकर बहुत 'क्रेजी' हो जाना कोई आकस्मिक घटना जैसी नहीं है ऐसा कहना है बनारस और बनारसीपन को ही ओढ़ने-बिछाने वाले पं. राजेश्वर आचार्य का। संचार क्रांति के दौर को लेकर बहुत उत्साहित न होने के बाद भी वे इस मामले में सोशल मीडिया की भूमिका को बहुत मन से सराहते हैं। कहते हैं आचार्य जी 'फेसबुक जैसे माध्यमों पर अपने तीज-त्योहारों और उनके सामाजिक-वैज्ञानिक पक्षों को ले कर विमर्श का जो दौर चल रहा है उसका बहुत बड़ा योगदान है अपने रस्म-रिवाजों को नई पहचान व नई परिभाषाओं के साथ प्रस्तुत करने में।' सही भी है, आंवले के वृक्ष तले दाल-भात-कोंहड़े की तरकारी बने या फिर छोले के साथ भठूरा छने क्या फर्क पड़ता है।

इस 'अवसर' के साथ सामूहिक सहभागिता और आत्मीयता का भाव बना रहे, जरूरी बात तो यह है। किसी त्योहार के बहाने आंवले के पेड़ तक जाने और इसी लस्तगे पर्यावरण से नजदीकियां बढ़ाने और 'आमलक' के आयुर्वेदिक गुणों को समझने-समझाने के लिए ही तो हमारे मनीषी पूर्वजों ने कभी मौसम और आरोग्य तो कभी खेती-बारी और कारोबार की रवानगी को केंद्र में रख कर गढ़े सारे तीज और त्योहार। लोककवि पं. हरिराम द्विवेदी 'हरि भइया' तो बस इतने से ही खुश हैं कि नए बच्चे भी अपने रीति-रिवाजों की ओर मुड़ने लगे हैं, नए अंदाज में ही सही अपनी माटी से जुड़ने लगे हैं। उनका कहना है भरत मिलाप हो या नाग नथैया, अक्षय नवमी हो या गंगा पुजइया, इन सबको समझने-समझाने की ये कोशिशें उम्मीद के दीये जलाते हैं। नई पीड़ी की 'सोच' को ले कर अक्सरहां व्यक्त की जाने वाली शंकाओं को धता बताती हैं।


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