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काशी के गंगा घाटों पर निधियों के आकाशदीपों ने बनायी आज अपनी वैश्चिक पहचान

सनातनी संस्कार को नित्य का उत्सव तो बनाया ही भव्यता के चरम तक पहुंचाते हुए गंगा की वैभव कथा को इनक्रेडिबल इंडिया के अंतरराष्ट्रीय पोस्टर में जगह दिलाई और वैश्विक फलक तक पहुंचाया।

By Abhishek SharmaEdited By: Published: Fri, 07 Jun 2019 10:20 AM (IST)Updated: Fri, 07 Jun 2019 07:17 PM (IST)
काशी के गंगा घाटों पर निधियों के आकाशदीपों ने बनायी आज अपनी वैश्चिक पहचान
काशी के गंगा घाटों पर निधियों के आकाशदीपों ने बनायी आज अपनी वैश्चिक पहचान

वाराणसी [प्रमोद यादव]। गंगा और देवाधिदेव महादेव का नाता पौराणिक ग्रंथों में भले पढऩे को मिल जाए मगर बाबा की नगरी में यह रिश्ता मूर्त रूप पाता है। इसे सिर्फ देखने ही नहीं महसूस लेने की इच्छा रखने वालों को बनारस में गंगा का दशाश्वमेध घाट बारंबार अपनी ओर खींचने का आभास दे जाता है। वह स्थान जहां एक गुनी चित्रकार सत्येंद्र मिश्र मुन्नन महाराज ने अपने मन के कैनवास पर सोच की कूंची से गंगा की आरती को सजाया। गोधूलि बेला के साथ शंख ध्वनि, घंटियों की रुनझुन, वेद मंत्र के साथ गुग्गुल, दीप-धूप की सुवास से कोने-कोने में अलौकिक अहसास का वास कराया। इस तरह सनातनी संस्कार को नित्य का उत्सव तो बनाया ही भव्यता के चरम तक पहुंचाते हुए गंगा की वैभव कथा को 'इनक्रेडिबल इंडिया' के अंतरराष्ट्रीय पोस्टर में जगह दिलाई और वैश्विक फलक तक पहुंचाया। आज काशी की पहचान विश्‍वभर में अपने घाटों की वजह से बन गई है।

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अंतरराष्ट्रीय पोस्टर में जगह

जीवनदायिनी गंगा की आरती तो सनातन है लेकिन पं. सत्येंद्र मिश्र ने इस संस्कार को नित्य का उत्सव बनाया, मन के कैनवास पर सोच की कूंची से सजा कर भव्यता के चरम तक पहुंचाया और गंगा की वैभव कथा को 'इनक्रेडिबल इंडिया' के अंतरराष्ट्रीय पोस्टर में जगह दिलाई। देवदीपावली के शुद्ध पारंपरिक आयोजन में शौर्य पर्व का संयोजन किया और बनारस के अनूठे जल उत्सव को बलिदान रूप का रूप भी दिया। उनका जाना एक युग के चले जाने से कम न था लेकिन युवा हाथ ने पिता से मिले गंगा सेवा के संस्कार को निधि मानते हुए पुत्र धर्म की तरह निभाया। 

बलिदान पर्व के रूप में मान्यता

दरअसल, महामना की बगिया में गढ़े गए व्यक्तित्व में गंगा की निर्मल धारा से ही उत्साह का स्थायी भाव घुलामिला और उसे मुन्नन महाराज ने अपनी ताकत बनाया। इसे गंगा आरती और देव दीपावली को काशी के सबसे भव्य लोकपर्व के रूप में स्थापित करने के अपने एकमेव लक्ष्य साधने के प्रयास में झोंक दिया और वह कर दिखाया जो किसी अप्रतिम कल्पनाकार के ही बूते का था। वर्ष 1991 में एक दीप से गंगा की आरती से सिलसिला शुरू कर तीन, पांच से होते सात आरती तक विस्तार देते हुए ख्याति के सातवें आसमान तक तो पहुंचाया ही देव दीपावली जैसे आयोजन को नई रंगत देते हुए 1999 में इस घाट पर जो अनूठी रंगत सजाई कि देखने वालों की अंगुलियां बरबस ही दांतों तले जाती नजर आईं। हवाओं के  कैनवास पर भी नूतन सर्जनाओं का जीवंत स्केच खींच देने की महारत व कल्पना की ऊंची उड़ान के बूते अपने घाट के इस शुद्ध आध्यात्मिक उत्सव को सीमा पर बलिदान देने वाले सेना के शहीदों की शहादत को केंद्र बना कर इसे आकाशदीप जलाने के पहले दिन से ही मासपर्यंत के बलिदान पर्व के रूप में मान्यता दिलाई। 

क्लिक कर गया आइडिया

देव दीपावली व शौर्य पर्व के संयोजन के तार करगिल तक जाते हैं। सब कुछ पारंपरिक चल रहा था। इस बीच मुन्नन महाराज को कहीं से पौराणिक आख्यान मिला कि पर्व के एक अंग का निमित्त महाभारत केयोद्धाओं को श्रद्धांजलि देना भी है। बस, तुरंत आइडिया क्लिक हुआ। वर्ष 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान वे सेना के वरिष्ठ अफसरों से मिले, विचार साझा किए और देव दीपावली के बहुरंगी आयोजनों में एक और रंग शौर्य पर्व के रूप में जुड़ गया। इससे सृजित हुआ एक अवसर देवताओं की पूजा-आराधना के साथ मां भारती की रखवाली में बलिदान होने वाले सूरमाओं के नमन का भी।

युग परिवर्तन का दौर 

मुन्नन महाराज का वर्ष 2013 में असमय चले जाना एक युग का पन्ना बदल जाने से कम न था। इस कठिन दौर में गंगा सेवा के संस्कार को पिता से मिली निधि मानते हुए उनके होनहार युवा पुत्र सुशांत ने जीवन संकल्प बनाया। उनकी अंतिम इच्छानुसार नैत्यिक आयोजन व गंगा से जुड़े पर्व- उत्सव की हर रस्म को आज भी अंजाम दे रहे हैं। गंगा के नाम नैत्यिक सांध्य व दिवस विशेष के अनुष्ठान -विधान की इंद्रधनुषी छटा तो लोग आज भी वैसे ही पाते हैं लेकिन मुन्नन महाराज अपने युवा पुत्र में पथरीले घाटों की तरह पूरी जीवटता के साथ पूरे भाव में झलक जाते हैं। सुशांत बताते हैं यह सब पिता से मिले संस्कार और गंगा मइया के आशीर्वाद से संभव हो पाता है। आज भी कोई कठिन पल आता है तो सामने गंगा की धारा उत्साह बढ़ाती है और पिता जैसे पीछे खड़े हो जाते हैं। 

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