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चाय दिवस पर लड़ी गिलास, छलकी मिल्लत की मिठास, अंतर्राष्ट्रीय पेय से काशी के पहले कनेक्शन को याद फरमाया

चाय को सौहार्द का प्रतीक बताते हुए शहर बनारस से चाय के पहले परिचय वाले दिनों को याद फरमाया।

By Saurabh ChakravartyEdited By: Published: Mon, 16 Dec 2019 10:54 AM (IST)Updated: Mon, 16 Dec 2019 01:31 PM (IST)
चाय दिवस पर लड़ी गिलास, छलकी मिल्लत की मिठास, अंतर्राष्ट्रीय पेय से काशी के पहले कनेक्शन को याद फरमाया
चाय दिवस पर लड़ी गिलास, छलकी मिल्लत की मिठास, अंतर्राष्ट्रीय पेय से काशी के पहले कनेक्शन को याद फरमाया

वाराणसी [कुमार अजय]। बहुत दिनों पर मिले हो साथी, आओ एक कप चाय लड़ेचाय दिवस है सबहर रस है जमे बइठकी खड़े-खड़े मिल्लत और यकजहती के कुछ ऐसे ही जज्बातों के साथ काशी के यार दोस्तों रविवार को चाय दिवस के अवसर पर छनाछन ग्लास लड़ाया। चाय को सौहार्द का प्रतीक बताते हुए शहर बनारस से चाय के पहले परिचय वाले दिनों को याद फरमाया। अस्सी अड़ी पर आयोजित इस समारोह में अड़ीबाजों ने कहा कि जिस प्रकार काशी की गंगा पूजन और वजू में फर्क नहीं जानती उसी तरह चाय की गिलास भी ङ्क्षहदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के होठों का स्पर्श अलग-अलग नहीं पहचानती। अड़ी के बुजुर्गवार सदस्य बाऊ यानी उदय नारायण पांडेय ने उन दिनों को याद किया जब पहली बार बनारस से रू-ब-रू हुई चाय की गिलास के प्रचार के लिए कठगोड़वा (डंडे पर संतुलन संभालता आदमी) से डुगडुगी पिटवाई जाती थी।

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चौराहे-चौराहे स्टाल लगाकर हर खास-ओ-आम को मुफ्त चाय पिलाई जाती थी। यह भी याद किया गया कि स्फुर्ति कि हरारत देने वाली चाय का नशा कैसे शहर वालों के दिलो दिमाग पर छाया और चाय का स्वाद ने शहर के मिजाज के साथ कैसा आत्मीय रिश्ता बनाया। अड़ीबाजों ने चाय की उन दुकानों को भी याद किया जो कभी सिर्फ चायखाना नहीं अपने आप में एक आंदोलन हुआ करती थी। उन दिलदार चायवालों को भी याद किया। जिनके दम से शहर की रौनक गुलजार हुआ करती थी। इस क्रम में लोगों ने याद किया लंका वाले गार्जियन यानी टंडन जी को जिनकी चाय बड़े-बड़े अभियानों का सबब हुआ करती थी। चाय के साथ ही जिनकी कृपा से कितने ही गरीब छात्रों की दाल-रोटी चला करती थी। गोदौलिया वाले दी रेस्टोरेंट के नुटू दादा व लहुराबीर की मोती कैंटीन के जवाहर भईया को भी चाय दिवस पर याद कर उन्हें भावांजलि दी गयी।

अड़ी के सक्रिय सदस्य पीयूष मिश्रा व बच्चा भईया (प्रवीण वर्मा) व भारत कला भवन वाले बाबू आर पी सिंह ने बलिया तथा मऊ के रेलवे स्टेशनों पर अभी हाल के दिनों तक लटके हुए साइन बोर्डों को याद किया जिनके अनुसार उस दौर में चाय सिर्फ एक पेय नहीं सर्दी जुकाम और मलेरिया की दवाई हुआ करती थी। चाय पीने वालों की हर तरफ बड़ाई हुआ करती थी। आईबी से लंबे अरसे तक जुड़े रहे केबी उपाध्याय ने यह बताया कि किस तरह शहर में पहले-पहले आई थियोसाफिस्ट एनी बेसेंट ने पहली बार अपने मेहमानों के स्वागत के लिए टेबल पर क्राकरी में चाय सजाई और चाय के दीवाने हुए कितने ही लोगों को चाय बनाने की विधि समझायी। अंत में सभी अड़ीबाजों ने हर-हर महादेव के जयघोष के साथ चाय का गिलास लड़ाया और बड़ी ही गर्भजोशी से चाय का गुन बखानने वाला समवेत गीत गाया। इस समारोह को आशू मिश्रा, एडवोकेट सुभाष चतुर्वेदी, चंद्र प्रकाश जैन, सुरेंद्र जैन, राजेश आजाद, समीर माथुर वगैरह ने अपनी जोशीली भागीदारी से पुरजोश बनाया।

लीकर चाय का पहला स्टीकर

इस मौके पर अड़ी के संचालक मनोज ने शहर बनारस में लीकर चाय के पहले चलन की कहानी भी सुनाई। बताया कि चालीस के दशक में बर्मा फ्रंट पर द्वितीय विश्व युद्ध के मोर्चे पर तैनात उनके दादा बलदेव सिंह के साथ कैसे लीकर चाय की चुस्की बनारस तक चली आई। मनोज ने किस्सा सुनाया कि किस तरह मोर्चे के अफसर मेस में ड्यूटी के दौरान उनके दादा बलदेव सिंह ने लीकर चाय बनाने का नुस्खा आजमाया और रिटायरमेंट के बाद वही फार्मूला शहर बनारस तक पहुंचाया।


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