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आपातकाल के 44 साल: 14 साल की उम्र में लड़ी जुल्म और ज्यादती के खिलाफ जंग, काल कोठरी का मुंह देखना पड़ा

वाराणसी स्थित रामनगर निवासी सरदार सतनाम सिंह किसी दौर में युवाओं के लिए संघर्ष के पर्याय बन गए थे आपातकाल में वह राजनीतिक सत्ता की यातनाओं के शिकार हुए।

By Shashank PandeyEdited By: Published: Sun, 23 Jun 2019 10:13 AM (IST)Updated: Tue, 25 Jun 2019 08:00 AM (IST)
आपातकाल के 44 साल: 14 साल की उम्र में लड़ी जुल्म और ज्यादती के खिलाफ जंग, काल कोठरी का मुंह देखना पड़ा
आपातकाल के 44 साल: 14 साल की उम्र में लड़ी जुल्म और ज्यादती के खिलाफ जंग, काल कोठरी का मुंह देखना पड़ा

अखिलेश मिश्र, वाराणसी। पढ़ने-खेलने की उम्र में 14 साल के बालक को जुल्म और ज्यादती के खिलाफ लड़ाई लड़ने का जुनून सवार था। बात हो रही है वाराणसी स्थित रामनगर निवासी सरदार सतनाम सिंह की जो किसी दौर में युवाओं के लिए संघर्ष के पर्याय बन गए थे। आपातकाल में राजनीतिक सत्ता की यातनाओं के शिकार सतनाम उन दिनों को याद कर आक्रोश से भर जाते हैं। चर्चा छिड़ी तो एक-एक कर आपबीती सुनाने लगे। 

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बताते हैं कि 25 जून 1975 को आपातकाल लग चुका था। इसका विरोध करने वाले ज्यादातर नेता व कार्यकर्ता गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए थे, जो बचे रहे वे छिपकर अपनी मुहिम को आगे बढ़ा रहे थे। उन्होंने बताया कि इन्हीं नेताओं के कहने पर मैं पांच जुलाई की दोपहर रामनगर चौक पर सभा की तैयारी में जुट गया। छोटा सा मंच बनाया तो भीड़ भी धीरे-धीरे जुटने लगी। मंच पर भाषण देने के लिए पहुंचा ही था कि पुलिस आ धमकी और मुङो पकड़ लिया। इतनी देर में वहां मौजूद लोग भाग खड़े हुए। इसके बाद पुलिस मुङो पीटते हुए थाने ले गई। वहां से जेल भेज दिया गया। सतनाम के अनुसार, जिला जेल में उन्हें एक साल तक डिफेंस इंडिया रूल (डीआइआर) के तहत रखा गया। वहां तो कोई खास परेशानी नहीं हुई लेकिन एक साल बाद रिहाई हुई तो तत्काल मीसा के तहत गिरफ्तारी कर सेंट्रल जेल भेज दिया गया।

यहां उन्हें तनहाई में रखा गया और फिर शुरू हुआ रोंगटे खड़े कर देने वाली प्रताड़ना का सिलसिला। जेल सुपरीटेंडेंट रहे सियाराम मैत्रेय ने एक दिन प्रस्ताव रखा कि माफी मांग लो तो सजा खत्म कराकर रिहा करावा दूंगा। लेकिन यह उन्हें स्वीकार नहीं था। उन्होंने दो टूक मना कर दिया। एक किशोर का यह इन्कार सुपरीटेंडेंट को नागवार लगा और काफी पीटा गया फिर काल कोठरी में डाल दिया गया। वह ऐसा कमरा था जहां दिन और रात का पता ही नहीं चलता। हमेशा अंधेरा ही रहता। उजाला तब दिखता जब एक बार स्नान व शौच के लिए बाहर निकाला जाता। दुर्गंध व बदबू से दम घुटता महसूस होता। इन ज्यादतियों से वह कभी विचलित नहीं हुए और दिमाग में बस एक ही नारा गूंजता-दम है कितना दमन में तेरे देख लिया है देंखेंगे..। इस दौरान पीलिया के भी शिकार हो गए। हालत बिगड़ते देख किसी अनहोनी की आशंका में उन्हें जेल के अस्पताल में भर्ती कराया गया। कुछ दिनों बाद इसकी खबर सेंट्रल जेल में ही बंद कल्याण सिंह, जनेश्वर मिश्र व ओमप्रकाश सिंह को लगी। इनमें कल्याण सिंह और जनेश्वर मिश्र अस्पताल आए और उनका हाल-चाल जाना। साथ ही जेल सुपरीटेंडेंट को चेताया कि इस बच्चे के साथ कुछ अनहोनी हुई तो हालात संभाले नहीं सभलेंगे। इसके बाद उन्हें जेल में समुचित इलाज मिलने लगा।

कैद के दौरान घर वालों से मिलना था मुहाल
सतनाम के अनुसार, दोनों जेलों में 19 महीने रहने के दौरान घर वालों से मिलने पर सख्त पाबंदी थी। किसी तरह महज दो बार पिता सरदार ईश्वर सिंह उनसे मिल सके थे। आपातकाल की समाप्ति के बाद अन्य लोगों के साथ उनकी भी रिहाई हुई तो किसी तरह वे लोग गोदौलिया पहुंचे। वहां से कुछ साथियों संग लंका आए और फिर पैदल रामनगर में रामपुर स्थित घर पहुंचे। लेकिन तब तक आधी रात हो चुकी थी। अचानक उन्हें देख माता-पिता समेत भाई-बहनों को विश्वास ही नहीं हुआ। अगले दिन घर आकर बधाई देने वालों का तांता लग गया। यह देख घर वालों को उन पर गर्व होने लगा जो कभी मान चुके थे कि वह गलत रास्ते पर निकल चुके हैं।

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