गो-काष्ठ से अंतिम संस्कार, दीर्घायु होंगे पेड़
मृत्यु अंतिम सत्य तो अन्त्येष्टि जीवन का आखिरी संस्कार है। पंच तत्व से बने शरीर को उसी में समाहित करने को शरीर का अंतिम संस्कार होता उसके लिए लड़कियों की व्यवस्था पेड़ काटकर होती है लेकिन अब पेड़ नहीं काटे जाएंगे। अब गो-काष्ठ से शवों का अंतिम संस्कार होगा। उन्नाव के रमाकांत दुबे इसके लिए प्लांट लगाने जा रहे हैं। उनके प्रोजेक्ट को प्रशासन की भी मंजूरी मिलना तकरीबन तय है। गो-काष्ठ बनाने वाली मशीन की कीमत 75 हजार से एक लाख रुपये है। एक मशीन से रोज दो क्विटल गो-काष्ठ बनाती है। गो-काष्ठ के लिए गो आश्रय स्थलों से गोबर खरीदा जाएगा ऐसे में उनकी भी आमदनी होने के साथ गो संरक्षण भी होगा। वहीं पेड़ों की कटान पर भी थमेगी।
राजीव द्विवेदी, उन्नाव
मृत्यु अंतिम सत्य तो अन्त्येष्टि जीवन का आखिरी संस्कार है लेकिन अब अंतिम संस्कार के लिए न तो लकड़ी जलानी पड़ेगी और न ही पेड़ काटने पड़ेंगे। अब गाय के गोबर का गो-काष्ठ इसका विकल्प बनेगा और पर्यावरण संरक्षण में मददगार भी। गो-काष्ठ बनाने को उन्नाव के कल्याणी मोहल्ला निवासी किसान व पर्यावरण प्रेमी रमाकांत दुबे ने पहल की है और उनका प्रोजेक्ट प्रशासन को भी खूब भाया। 75 हजार से एक लाख रुपये लागत वाला यह प्लांट रोज दो क्विटल गो-काष्ठ तैयार करेगा। इसके लिए गो आश्रय स्थलों से गोबर खरीदा जाएगा, उनकी आमदनी से गो संरक्षण भी होगा। जिले में हर साल ही करीब 3780 पेड़ बच जाएंगे और वन क्षेत्र बचने से पर्यावरण बेहतर होगा।
राजस्थान से मिला आइडिया
रमाकांत किसी काम से राजस्थान गए थे। वहां उन्होंने गो-काष्ठ मशीन देखी और लोगों को गो-काष्ठ इस्तेमाल करते देखा तो यहां प्लांट लगाने का आइडिया मिला। चार मशीनें लागने को उन्होंने प्रधानमंत्री रोजगार योजना के तहत आवेदन किया और प्लान प्रशासन के सामने रखा, जिसे मंजूरी मिल गई। सीडीओ की अध्यक्षता वाली अधिकारियों की कमेटी को प्रोजेक्ट अच्छा लगा।
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लकड़ी से बेहतर, पर्यावरण हितैषी भी
लकड़ी में 15 फीसद तक नमी होती है जबकि गो-काष्ठ में डेढ़ से दो फीसद ही नमी रहती है। लकड़ी जलाने में 5 से 15 किलो देसी घी या फिर रार का उपयोग होता है, जबकि गो-काष्ठ जलाने में एक किलो देसी घी पर्याप्त होगा। लकड़ी के धुएं से कार्बन डाईआक्साइड गैस निकलती है जो पर्यावरण व इंसानों के लिए नुकसानदेह है जबकि गो-काष्ठ जलाने से 40 फीसद आक्सीजन निकलती है जो पर्यावरण संरक्षण में मददगार होगी। गोकाष्ठ में लेकमड (तालाब का कीचड़) मिलाई जाती है जिससे देर तक जलती है।
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60 किलो गोबर से बनेगी 15 किलो गो-काष्ठ
60 किलो गोबर से 15 किलो गो-काष्ठ बनेगा। एक किलो गो-काष्ठ बनाने में अधिकतम तीन से चार रुपये का खर्च आता है जो एक किलो लकड़ी की कीमत से करीब 60 फीसद सस्ता है।
ऐसे होगी व्यवस्था
205 गोशालाएं हैं जिले में
5417 गोवंशीय वर्तमान में वहां हैं
5400 किलो करीब गोबर से हर दिन एकत्र होगा
1350 किलो करीब गो-काष्ठ रोजाना तैयार होगा
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पांच गुना कम खर्च
अंत्येष्टि में अमूमन सात से 11 मन ( एक मन में 40 किलो) यानि पौने तीन से साढ़े चार क्विटल लकड़ी लगती है। शुद्धता के लिए 200 कंडे लगाए जाते हैं। लकड़ी की कीमत तीन से साढ़े चार हजार रुपये होती है वहीं गोकाष्ठ की कीमत अधिकतम चार रुपये किलो तक होगी। एक अंत्येष्टि में यह डेढ़ से दो क्विटल लगेगी तो 600 से 800 रुपये में अंत्येष्टि हो सकेगी।
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प्रतिमाह 900 अंत्येष्टि में जल जाती 3150 क्विंटल लकड़ी
बांगरमऊ के नानामऊ घाट पर एक माह में औसतन 110, बक्सर में औसतन 500, शुक्लागंज में औसतन 110 और परियर घाट पर औसतन 200 शवों का दाह संस्कार होता है। जिले में प्रतिमाह करीब 900 शवों की अंत्येष्टि होती है और इसमें 3150 क्विटल लकड़ी जल जाती है। गो-काष्ठ अधिकतम 1800 क्विटल लगेगी जिसकी कीमत ज्यादा से ज्यादा 7.20 लाख रुपये होगी वहीं लकड़ी की कीमत 31.50 लाख होगी।
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प्रतिमाह बच जाएंगे 315 पेड़
10 वर्ष का एक पेड़ 10 क्विटल लकड़ी देता है। प्रतिमाह 3150 क्विटल लकड़ी जलाई जाती है। गोकाष्ठ से हर माह 315 पेड़ कटने से बच जाएंगे।