गायब हो रही बंधुआ के बर्तनों की खनक
गायब हो रही बंधुआकला के वर्तनों की खनक
सुलतानपुर: शहर से सिर्फ आठ किमी दूर सुलतानपुर-लखनऊ राजमार्ग पर दूबेपुर ब्लॉक का बंधुआ कला गांव पीतल, तांबा, कांसा व फूल धातु के बने बर्तन से देश दुनिया में पहचान बना चुका था, लेकिन शासन-प्रशासन की उपेक्षा से यह उद्योग आज गुमनामी की कगार पर है। बर्तनों की खनक गायब है। खरीदार भी नदारद हैं। कारोबारी पलायन कर रोजी रोटी की तलाश में दूसरा ठिकाना खोजने में लगे हैं। सरकारों की उपेक्षा से इस कारोबार को उद्योग का दर्जा नहीं मिल सका। पूंजी के अभाव में इस धंधे से जुड़े जो लोग बाहर नहीं जा सके वे आज मजदूरी कर किसी तरह से परिवार चलाने को विवश हैं।
करीब 200 घरों में बनते थे बर्तन
बात नब्बे के दशक की है। बंधुआ कला का ठठेरी बाजार मोहल्ला, जहां हर घर कारखाने की शक्ल में था। यहां करीब 200 घरों में पीतल, तांबा, कांसा धातु के बटुआ, लोटा, हंडा, परात आदि से लेकर हर छोटे-मोटे सामान बनते थे। मुरादाबाद, समसाबाद, मिर्जापुर, लखनऊ, बाराबंकी, नेपाल से आए खरीदारों में बर्तनों को पाने की होड़ लगी रहती थी। स्थानीय दुकानदार भी यहीं के बने बर्तन बेचते थे।
संघर्ष कर रहे हैं बचे कारोबारी
अजय कुमार, कुंवर सिंह, मंगल, ईश्वर प्रसाद, गुड्डू, मोनू ऐसे कुछ नाम हैं जो परंपरागत धंधे को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। अजय कुमार समय और सरकार दोनों को दोषी मानते हैं। वे कहते हैं कि सरकार ने कभी उनकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया। इस समय प्लास्टिक और स्टील के बर्तनों की मांग ज्यादा है। जिस वजह से पीतल, तांबा आदि की मांग कम हो गई। लगन-सहालग में थोड़ा बहुत काम चल जाता है। फिर छह माह उन्हें बैठना ही पड़ता है। उन्होंने बताया कि ऑर्डर पर माल तैयार किया जाता है। कारोबारी ही उन्हें कच्चा माल उपलब्ध कराते हैं। यदि पूंजी होती तो वे खुद के पैसे से कच्चा माल खरीदते। जिससे उन्हें दुगना फायदा होता।
पलायन कर चुके हैं सैकड़ों कारोबारी
धंधा खत्म होने लगा तो रोजी रोटी के भी लाले पड़ने लगे। हाथ में हुनर होने के बावजूद इन्हें भरण पोषण के लिए दूसरे जगहों पर पलायन करना पड़ा। अब तक करीब 100 से ज्यादा लोग मध्य प्रदेश, मिर्जापुर, लखनऊ, मुरादाबाद, फैजाबाद समेत अन्य इलाकों में शिफ्ट हो चुके हैं। जो बचे भी हैं उन्होंने दूसरा कारोबार शुरू कर लिया।
रोजगार से जुड़े थे हजारों लोग
राजकपूर कहते हैं कि सिर्फ कारोबारी ही नहीं बल्कि हजारों लोगों इस रोजगार से जुड़े थे। औद्योगिक क्षेत्रों की तरह सुबह शाम यहां मजदूर ही मजदूर दिखाई देते थे। दुकान, खोमचे व चाय की गुमटी चलाने वाले भी हजारों कमाते थे। कूड़ा-कबाड़ बीनने वालों की भी अच्छी खासी आमदनी हो जाती थी।
वैज्ञानिक ²ष्टि से तांबे व पीतल के बर्तनों का इस्तेमाल है सेहतमंद
वैज्ञानिक ²ष्टि से तांबे, पीतल व कांसे के बर्तनों में खाना-पीना सेहत के लिए फायदेमंद माना जाता है। प्राचीन काल में राजाओं-महाराजाओं के यहां सोने-चांदी के अलावा इन्हीं बर्तनों की भरमार हुआ करती थी।