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पौराणिक स्थलों की उपेक्षा से विरासत धूमिल

सुलतानपुर: जिले में करीब एक दर्जन महत्वपूर्ण पौराणिक व ऐतिहासिक स्थल होने के बावजूद सुलतानपुर देश के

By JagranEdited By: Published: Sun, 21 Apr 2019 10:24 PM (IST)Updated: Sun, 21 Apr 2019 10:24 PM (IST)
पौराणिक स्थलों की उपेक्षा से विरासत धूमिल
पौराणिक स्थलों की उपेक्षा से विरासत धूमिल

सुलतानपुर: जिले में करीब एक दर्जन महत्वपूर्ण पौराणिक व ऐतिहासिक स्थल होने के बावजूद सुलतानपुर देश के जाने-माने पर्यटन स्थलों की सूची से गायब है। जबकि यहां भगवान राम, सीता व उनके बेटे कुश के अलावा महाबली हनुमान, भगवान शिव, दुर्गा व महात्मा गौतम बुद्ध से जुड़े कई स्थलों के पौराणिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य आज भी मौजूद हैं। मगर किसी जनप्रतिनिधि व शासन-प्रशासन ने इसके जीर्णोद्धार पर ध्यान नहीं दिया। किसी भी चुनाव में इसे महत्वपूर्ण मुद्दा भी नहीं बनाया गया। यही वजह है कि भगवान राम, सीता, हनुमान, शिव व महात्मा बौद्ध से जुड़े होने के बावजूद यह जिला आज भी उपेक्षाओं का शिकार है। साथ ही यहां की सांस्कृतिक विरासत की चमक भी फीकी पड़ती जा रही है। यदि सरकार इसे पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित करे तो यह जिला सिर्फ प्रदेश में ही नहीं, बल्कि विश्व के मानस पटल पर अपनी अलग पहचान बना सकता है। श्रीराम के बेटे कुश ने बसाया था नगर पौराणिक साक्ष्यों के अनुसार सुलतानपुर नगर को भगवान श्रीराम के बेटे कुश ने आदि गंगा गोमती के पूर्वी तट पर बसाया था। उन्हीं के नाम पर इसे कुशनगर व कुशभवनपुर कहा गया। यह अवध का महत्वपूर्ण नगर था। 12वीं शताब्दी में व्यापार के लिए कुशभवनपुर आए खिलजी वंश के सुलतानों का भार जाति के राजाओं से युद्ध हुआ। जीत के बाद उन्होंने इसका नाम बदलकर सुलतानपुर रख दिया। प्रमुख पौराणिक व ऐतिहासिक स्थल

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- सीताकुंड उपलब्ध अभिलेखों के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम व मां सीता वनगमन के दौरान यहां एक रात रुके थे। जगद्गुरु स्वामी मधुसूदनाचार्य जी महाराज ने बताया कि आदि गंगा गोमती के इसी तट पर जानकी ने स्नान किया था। फिर यहां से वह प्रयागराज रवाना हुए थे। मां सीता ने इस घाट पर अपने केश धुले थे और प्रभु की आराधना के लिए कुंड बनाया था। तब से इसे सीताकुंड के नाम से जाना जाता है। अब भी जब कोई संत अयोध्या से प्रयागराज व चित्रकूट जाता है तो वह एक रात्रि का विश्राम सीताकुंड घाट पर अवश्य करता है।

- धोपाप पौराणिक साक्ष्यों व किवदंतियों के अनुसार रावण का वध करने के बाद अयोध्या लौट रहे प्रभु श्रीराम ने महर्षि वशिष्ठ के आदेश पर ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए यहीं आदि गंगा गोमती के तट पर स्नान किया था। आज यह स्थान धोपाप के नाम से जाना जाता है, जो लंभुआ तहसील में स्थित है।

- विजेथुआ महाबीरन धाम पौराणिक मान्यताओं के अनुसार लक्ष्मण को मेघनाथ की ब्रह्मशक्ति लग जाने के बाद उनके प्राण बचाने को जब हनुमान संजीवनी बूटी लाने जा रहे थे तो कादीपुर तहसील के सूरापुर के पास कालनेमि राक्षस ने उनका रास्ता रोक लिया था। यहीं उसका वध करके हनुमान आगे बढ़े थे। अब यह स्थान विजेथुआ महाबीरन के नाम से जाना जाता है।

- दियरा घाटलंका विजय के बाद अयोध्या वापसी के वक्त भगवान श्रीराम आदि गंगा गोमती के उत्तरी तट दियरा पहुंचे। प्रभु की अगवानी में अयोध्यावासी भी यहां आ चुके थे। गोमती में उन्होंने दीपदान किया। हरिशयनी गांव प्रभु ने दीपदान के बाद रात्रि विश्राम किया था।

- जनवारीनाथ धाम यह धाम लंभुआ से दो किलोमटीर दक्षिण में है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यहां स्वयंभू शिवलिग विद्यमान है। जनश्रुतियों के अनुसार औरंगजेब इस शिवलिग को नष्ट करना चाहता था। जब वह इसे तोड़ता तो अगले दिन वह पुन: अपने पुराने रूप में आ जाता था। इसके बाद डरकर औरंगजेब वापस चला गया।

- लोहरामऊ शक्तिपीठ जिला मुख्यालय से पांच किलोमीटर दूर स्थित इस धाम को शक्तिपीठ के रूप में मान्यता प्राप्त है। करीब 400 साल पहले दुर्गा मां ने पिडी के रूप में दर्शन दिया था।

- गढ़ा-बौद्ध स्थलगजेटियर व बौद्ध ग्रंथों में इसके उल्लेख मिलते हैं। आज भी यह स्थान कुड़वार में खंडहरनुमा स्थल के तौर पर मौजूद है। भगवान गौतमबुद्ध स्वयं यहां काफी समय तक रहे थे और उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं को दीक्षा दी थी। बौद्धकालीन उत्तर भारत के 10 गणराज्यों में से एक केशिपुत्र(गढ़ा) भी था।

यह सिविल लाइन स्थित जिला उद्योग केंद्र परिसर में स्थित देववृक्ष है। जिसकी पौराणिक मान्यता है। वनस्पति विज्ञानियों ने भी इसे दुर्लभ वृक्ष माना है। इसकी आयु हजारों वर्ष आंकी गई है।

यह धाम लंभुआ में स्थित है। देवी भगवती के इस मंदिर को कई बार मुगल शासकों ने नष्ट कराने के प्रयास किया था। इस स्थल पर अवध की राजधानी बनाने की कोशिश सफदरजंग ने की थी, लेकिन जब भी उसने निर्माण का प्रयास किया मरी भवानी की कृपा से उसको सफलता नहीं मिली। क्षेत्र के लोग इन्हें कुलदेवी की मान्यता देते हैं।


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