पारंपरिक दिवाली से वातावरण हो जाता था शुद्ध
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संवादसूत्र, करौंदीकलां (सुलतानपुर): दीपावली का त्यौहार युगों-युगों से बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। मान्यता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम 14 वर्ष के वनवास की अवधि पूरा होने पर तथा लंका विजय के पश्चात जब भगवान श्रीरामचंद्र जी, सीता व लक्ष्मण के साथ अयोध्या वापस आए थे तो इसी खुशी में स्वागत दीप जलाकर दीपावली का त्यौहार मनाया गया था। घी के दीप जलाने व हवन-पूजन एवं धूपबत्ती से उठने वाले धुएं से पर्यावरण शुद्ध होता था।
पहले की दीपावली घरों व प्रतिष्ठानों में मिट्टी के बने दीये जलाकर मनाई जाती थी। देशी घी व तेल के दीपों को जलाकर प्रकाश उत्सव मनाया जाता था। इससे पर्यावरण के साथ सबकी सुरक्षा सुनिश्चित होती थी। अब आधुनिकता और भौतिकता के चलते दिवाली प्रदूषण का प्रतीक बनती जा रही है। दीपावली पर पटाखों इत्यादि से ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण के कारण सुप्रीम कोर्ट भी ¨चतित है। इसलिए पर्यावरण को क्षति पहुंचाए बगैर दिवाली मनाने की पुरानी परंपरा पर ही सबको वापस आना होगा। पूर्व प्रधानाचार्य रहे सुरेंद्र प्रताप ¨सह कहते हैं कि पर्यावरण की सुरक्षा हम सब की जिम्मेदारी है। इसलिए प्रदूषण फैलाने से रोकना होगा।
रामचंद्र मिश्र कहते हैं कि पटाखों-फुलझड़ियों का उपयोग न कर के मिट्टी के बने व घी या तेल के दीये जलाएं। ताकि पर्यावरण शुद्ध हो।