बैलगाड़ी जैसा न बनाए बच्चों का जीवन
जीवन में आगे बढ़ते रहने की इंसाल की ललक जीवन भर बनी रहती है। यह सफर कहाँ खत्म होगा इसे सोचे बिना मानव चलते रहता है। मानव ने सभ्यता के तौर पर कई ऐसे नियम बनाएं हैं
बच्चों की क्षमता को पहचानते हुए ही उन्हें पढ़ाई का बोझ दें। जिससे वह उस विषय के साथ कदमताल करते हुए आगे का रास्ता तय कर सके। जीवन में आगे बढ़ते रहने की इंसान की ललक जीवन भर बनी रहती है। यह सफर कहां खत्म होगा इसे सोचे बिना मानव चलते रहता है। मानव ने सभ्यता के तौर पर कई ऐसे नियम बनाएं हैं जो प्रकृति के नियम के विपरीत हैं। भारी आबादी के बीच अवसरों की कमी के कारण नई नयी पीढ़ी पर दबाव लगातार बढ़ते जा रहा है। इसी दबाव में बीच का रास्ता निकालना है। इसके लिए जरूरी है कि स्वयं में सृजन की प्रवृत्ति विकसित की जाय। निर्भरता कई समस्याओं की जड़ बनती जा रही है। किसी के साथ हो लेने की भावना विकसित करने से अच्छा होगा कि अपने साथ कुछ को जोड़ने की आदत डाली जाय।
तेज रफ्तार ¨जदगी में सफलता के तय होते नये मानक नई पीढ़ी पर अप्रत्यक्ष दबाव बढ़ा रहे हैं। इसमें शिक्षा को शामिल किया जा सकता है। सफलता के साथ प्रतिस्पर्धाएं बढ़ी हैं। अभिभावक, बच्चों की क्षमताओं में वृद्धि की बजाय उसे ऐसे लक्ष्य की ओर धकेल रहे हैं जिसके कारण उसका जीवन बैलगाड़ी जैसा हो गया है। शिक्षा के निरंतर बदलते मानकों ने शिक्षा को पूरी तरह ऐसा बोझिल बनाया है कि एक छात्र अपनी उमंगों को ही खो देता है। अभिभावकों के उद्देश्य व शिक्षा प्रणाली दोनों ही उत्साहविहीन हैं। बात करें अभी दो-तीन दशक पहले की तो उस दौर में शिक्षा एक व्यक्ति को इंसान बनाने पर जोर देती थी। छात्र के मनोविज्ञान के अनुरूप पाठ्यक्रमों का निर्धारण होता था। निजी शैक्षणिक संस्थाओं की गला काट प्रतिस्पर्धा बच्चों पर बोझ लाद रही हैं। शिक्षा बोर्ड कोई हो, सभी बच्चों के ऊपर अपेक्षाओं का भारी बोझ लाद रहे हैं। माता-पिता और अन्य परिजन भी छात्र के सर्वश्रेष्ठ अंक लाने की उम्मीद में उलझे रहते हैं। यह अंधी प्रतिस्पर्धा भले ही बच्चों को सपने दिखाती हो लेकिन, यह उनका उचित मार्गदर्शन नहीं कर पाती। ऐसे में अभिभावकों का दायित्व है कि वे अपने बच्चों के साथ दोस्त जैसा व्यवहार करें। उनके मन की बात जानने की कोशिश करें। हर परिस्थिति में बच्चों का आत्मविश्वास बनाये रखें। बच्चे की प्रतिभा के अनुसार उसे प्रोत्साहित करें। छात्र की महत्वाकांक्षा को समझें। उस पर अधिक से अधिक समय तक केवल पढ़ते ही रहने का दबाव न डालें। छात्र के साथ संवाद बना कर रखें। बच्चे की तुलना पड़ोसी से न करें। हां लेकिन इतना जरूर करें कि उसे समाज में हो रहे बदलाव की जानकारी देते हुए आगे कुछ करने के लिए प्रेरित करते रहें। जिससे बच्चे के मन-मस्तिष्क में यह बात समाए कि उसे आगे क्या बनना है। -लालचन्द गुप्त
(राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक)
प्रधानाचार्य उच्च प्राथमिक विद्यालय, करमसार, ओबरा।