ऐतिहासिक विरासत को न मिला 'सियासी प्रेम'
126 वर्ष पुराना है घंटाघर का शहर से नाता।
गोविद मिश्र, सीतापुर : यह मुद्दा सियासी इच्छाशक्ति से जुड़ा है। दरअसल, 'वक्त' ठहर गया है। इससे शहर की शान पर 'दाग' लगा है। पर, सियासत सो रही है। उसे तनिक भी परवाह नहीं मगर, उम्मीदें तो अब भी जवां हैं। बी पॉजीटिव.. बी पॉजीटिव.. का अहसास इसको निहारने से हो रहा है। बस इसलिए कि एकदिन उसे 'सियासी प्रेम' जरूर मिलेगा। कोई आएगा और उसकी 'धड़कन' को लौटा देगा। दो वर्ष से भी अधिक समय गुजर गया है, पर कोई आया नहीं है। क्या हुआ, वह इंतजार कर रहा है। पूरी रौ में.. पूरी ठसक के साथ..। उम्मीद है कि आने वाले दिनों में उसे सहारा जरूर मिलेगा। आप भी सोच रहे होंगे कि आखिर हम बात किसकी कर रहे हैं? चकराइये नहीं, हम बात घंटाघर की कर रहे हैं। वह घंटाघर, जो अपने शहर की शान है। वह घंटाघर, जो कभी पूरे शहर को समय के साथ दौड़ाता था। वह घंटाघर, जिसकी सुइयों की टिकटिक हमें गौरवान्वित करती थी, पर कभी शहर के लिए दिन-रात चलती रहने वाली इस घंटाघर में लगी घड़ी की सुइयां आज विश्राम कर रहीं हैं। उसे चलाने वाला कोई नहीं है। बीच में कुछ नेता जगे थे, पर वक्त ने उन्हें ही 'पैदल' कर दिया। नतीजा, सुइयां खामोश हैं। खैर, जाने भी दीजिए.. घंटाघर को 'सियासी प्रेम' के साथ नौकरशाही का साथ मिल जाए तो बात बन सकती है और शहर की शान फिर ये घड़ियां बढ़ा सकतीं हैं। ऐतिहासिक धरोहर
आलमनगर, होलीनगर, नईबस्ती, गदियाना, दुर्गापुरवा सरीखे के कई आसपास के मुहल्लों के हजारों परिवार रात में समय का अंदाजा इसी घड़ी के बजने वाले घंटे से लगाते थे। घंटाघर के समीप आने वाले हर किसी की निगाहें सबसे पहले इसी घड़ी पर ठहरती थीं। बुजुर्ग बताते हैं कि बचपन से लेकर अब तक वे घंटाघर की घड़ी के समय से अपना काम करते रहे हैं। घंटाघर हमारे शहर की अमूल्य ऐतिहासिक धरोहर है। शानदार नक्खासी
1875 में बना टॉवर आज अतिक्रमण का भी शिकार है। अंग्रेजों के शासन में बने इस घंटाघर में जितनी बड़ी घड़ी लगी है शायद ही किसी शहर के घंटाघर में लगी हो। इसका व्यास एक मीटर का बताया जाता है। घंटाघर की इमारत में शानदार नक्खासी है। इसमें कॉल्विन क्लॉक टॉवर 1893 लिखा है। इमारत में मुख्य द्वार के ऊपर तीन द्वार हैं, जिन पर बेहतरीन नक्खासी है। इन तीनों द्वार के बीच में ऊपर घड़ी लगी है। पहले भरी जाती थी चाभी
घंटाघर में लगी घड़ी की सुइयां पहले चाभी भरने से चलती थीं। इसके लिए एक व्यक्ति को जिम्मेदारी दी गई थी। वह प्रतिदिन यहां आता था। इसके बाद चाभी भरता था। इससे घड़ी की सुइयां करीब 24 घंटे चलती थीं। अब यह भी दर्द
इस ऐतिहासिक घंटाघर का एक और दर्द यह भी है कि इस पर अतिक्रमण हावी हो गया है। वक्त के साथ सियासत और नौकरशाही के मुंह फेरने से यहां पर बाजार बन गया है। ऊपर जाना भी आसान नहीं है। अतिक्रमण के साथ ही बंदरों का भी आतंक रहता है।
पहले भी उठाया था यह दर्द
दैनिक जागरण ने घड़ी की टिकटिक बंद होने का दर्द पहले भी उजागर किया था। इसके बाद नपा चेयरमैन व पूर्व विधायक राधेश्याम जायसवाल ने पहल की थी। उन्होंने घड़ी को सही करवाने और न सही होने पर बदलवाने की बात कही थी।