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चाइनीज झालरों के आगे मंद पड़ा कुम्हारों का कारोबार

एक समय था, जब दीपावली पर्व नजदीक आता था, तो कुम्हारों के चेहरे खिल उठते थे,

By JagranEdited By: Published: Sat, 03 Nov 2018 10:16 PM (IST)Updated: Sat, 03 Nov 2018 10:16 PM (IST)
चाइनीज झालरों के आगे मंद पड़ा कुम्हारों का कारोबार
चाइनीज झालरों के आगे मंद पड़ा कुम्हारों का कारोबार

सिद्धार्थनगर : एक समय था, जब दीपावली पर्व नजदीक आता था, तो कुम्हारों के चेहरे खिल उठते थे, उनके चाक की रफ्तार तेज हो जाती थी और मिट्टी के इस कारोबार की धूम हर तरफ छाई रहती थी, परंतु अब चाइनीज झालरों के आगे कुम्हारों का ये कारोबार मंद पड़ गया है। अब दीये की जगह प्लास्टिक व झालर की लड़ियमों ने ले ली है। हालांकि परंपरा निभाने के लिए इनका प्रयोग तो हो रहा है, मगर प्राचीन परंपरा पर आधुनिकता हावी हो गई है। जिसका असर कुम्हारों के चाक की रफ्तार व परिवारों के जीवकोपार्जन पर भी पड़ा है। धीरे-धीरे अब रोजी-रोटी की ¨चता सताने लगी है। चूंकि बाजार में रंगारंग आकर्षक वस्तुओं की मांग बढ़ी हुई, इसलिए मिट्टी से निर्मित सामान खरीदने की भी रुचि लोगों में कम दिख रही है। उनकी पसंद चाइनी•ा दीये व झालर हो गई है। यही वजह है, कि मिट्टी के घड़े, दीया और मूर्तियां बनाने वाले कुम्हार कठिन हालातों से गुजर रहे हैं। इसके बाद भी परंपरा को जीवित रखने हेतु भरसक प्रयास कर रहे हैं।

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तहसील क्षेत्र के खानतारा, भड़रिया, भवानीगंज, अहिरौला सहित दर्जनों गांवों में कुम्हार जाति के लोग रहते हैं, जिनका काम मिट्टी के बर्तन बनाना और उसे बाजारों में ले जाकर बेचना है। पहले इस धंधे की चमक खूब थी, परंतु आधुनिकता की चकाचौंध में इस कारोबार की चमक भी मद्धिम पड़ गई। अब तो इस धंधे से जुड़े लोग जैसे-तैसे अपनी विरासत को ¨जदा रखे हुए हैं। खानतारा निवासी जामवंती व संचित ने बताया कि उनके परिवार के सभी सदस्य मूर्ति, दीया, मटका आदि मिलकर बनाते हैं। इस बार दीपावली के लिए 2000 दीये बनाए हैं, जिन्हें आसपास के बाजारों में ले जाकर बेच रहे हैं। अभी तक 200 दीये ही बिके हैं, आधुनिक सुविधाओं की वजह से लोग परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं। 25 वर्षीय रामपाल का कहना है, कि कुम्हार वर्ग हमेशा से पर्यावरण को सुरक्षित रखने का प्रयास करते हैं और इसलिए हम मिट्टी को ही चाक पर अलग अलग रूप देकर दीया, बर्तन आदि तैयार करते हैं, मगर वर्तमान में प्लास्टिक के बर्तनों के चलते यह कला भी अंतिम सांस गिन रही है। झिनकन, कांशीराम, धनीराम, बुधई, राम सवारे ने बताया कि मिट्टी के बर्तनों की बिक्री कम होने से उनके व्यवसाय पर बुरा असर पड़ा है, आर्थिक संकट के चलते अब बहुत सारे लोग पुरानी परंपरा के छोड़ मजदूरी आदि करने पर विवश हैं। केशव, चिनगुद, सफड़ू आदि का कहना है, कि अगर सरकारी मदद मिल जाए, तो हमारा चाक भी फिर से रफ्तार पकड़ ले।

विदित हो, कि कुम्हार जाति का इतिहास आज से नहीं बल्कि द्वापर युग से ही देखने को मिलता है। भगवान कृष्ण गोपियों की मिट्टी से बने घड़े को गुलेल से फोड़ा करते थे, लेकिन आज ये कुम्हार जाति अपने हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी इकट्ठा कर पाते हैं। कहना गलत न होगा, इस कला का अंत हुआ, तो कुम्हार जाति की पुरानी परंपरा इतिहास की कहानी हो जाएगी, ये पर्यावरण के लिए बेहतर नहीं होगा।


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