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संस्कारशाला.. मैं नहीं, हम का भाव रहे

शामली : मैं शब्द में अहम, अकेलापन और न जाने कितने अर्थ निकलकर आते है शायद अवसाद भी। लेकि

By JagranEdited By: Published: Tue, 18 Sep 2018 10:36 PM (IST)Updated: Tue, 18 Sep 2018 10:36 PM (IST)
संस्कारशाला.. मैं नहीं, हम का भाव रहे
संस्कारशाला.. मैं नहीं, हम का भाव रहे

शामली : मैं शब्द में अहम, अकेलापन और न जाने कितने अर्थ निकलकर आते है शायद अवसाद भी। लेकिन हम एक पूर्णता सकारात्मक शब्द हैं जिसमें एकजुटता, प्रेम, सौहार्द की भावना उभरकर आती है।

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हम शारीरिक, मानसिक, बौधिक या आर्थिक किसी भी कमजोरी से कभी अकेले नहीं जूझ सकते। यदि परिवार, दोस्त, रिश्तेदार सबका साथ है तो हम समस्या से तुरंत बाहर आ सकते है। मिलकर चलना, मिलकर अपने, पारिवारिक और सामाजिक कार्यो को अंजाम देना ही सही और सफल मनुष्य का कार्य है।

अकेला व्यक्ति एक समय पर तो अपनी बुद्धि और बल के प्रयोग से सफल हो सकता है, लेकिन एकांकी पन ज्यादा समय तक उसे मानसिक बलवान नहीं रख सकता। उसके मन में विद्रोह और न जाने कितने ही ख्याल आ सकते है। अहम वो है जो अंहकार लाता है और अंहकार ने तो रावण जैसे बुद्धिमान ब्राहमण को नहीं छोड़ा। तो हमारी नीति जो है वो मैं पर न होकर यदि हम पर आधारित होनी चाहिए।

चाहे सामाजिक उत्थान हो या राजनीतिक कोई भी विकास मनुष्य अकेला नहीं कर सकता हमेशा सबका साथ चाहिए। सबका साथ सबका विकास।

चाहे कोई सामाजिक कुरीतियाँ हो या पारिवारिक उसे शुरू तो बेशक एकल मानसिकता कर सकती है किंतु समाप्त हमेशा एकजुटता करती है चाहे वो किसी नेता के नेतृत्व में ही क्यों न हो।

चाहे देश चलाना हो या राज्य या ग्राम पंचायत या स्कूल या कोई औद्योगिक अकेले मनुष्य की सोच तो चल सकती है, लेकिन उसे कार्यान्वित करने के लिए एकजुटता और समूह की आवश्यकता पड़ती है। भारत विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता का देश है।

भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण तत्व शिष्टाचार, तहजीब, सभ्य, धार्मिक, संस्कार और मूल्य आदि है। आज सबकी जीवन शैली आधुनिक है। लेकिन भारतीय अभी भी संयुक्त परिवार, परंपरा और मूल्यों को बनाए हुए है। भारतीय संस्कृति न केवल भारत को अपितु समूची धरा को सदैव एक कुटुंब मानती हैं। मैं नही हम एक

अस्तित्वाद एक ऐसी विचार धारा है जिसमें अस्तित्व को तत्व से ऊपर समझा जाता है। इसके अनुसार मानव अपने पर्यावरण की निर्जीव वस्तुओं से आत्मबोध का उत्तर दायित्व पूर्वतया स्वयं लेता है। विक्टर इफ्रान्कल एक लेखक और मनोचिकित्सक भी है। उन्होंने अपनी पुस्तक मैनस सर्च फॉर मी¨नग में लोगोथेरेपी नाम के चिकित्सा के बारे में विस्तार से बताया। लोगेस एक ग्रीक शब्द है जिसका शुद्ध रूप है अर्थ। इसी कारण फ्रान्कल ने उच्च महत्व जीवन को अर्थ दिया है ना कि आनन्द को।

इस थेरेपी की कोशिश हमेशा यही रहती है कि मरीजों को पूरी तरह से अपने कर्तव्य की तरफ मोड़ा जा सके।

जेम्स डब्लयू रसेल के अनुसार: समाजवाद का विकास विचारों को थोपने से नहीं बल्कि गंभीर समस्याओं के न्यायोचित समाधान के विकल्प के रूप में हो सकता है।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जो साक्षी मानवता के कारण एक-दूसरे से जुड़ा है। समाज की डोर हमेशा सामूहिक विकास से जुड़ी है। इस प्रकार बधुत्व और सहयोग से भी। हम सबने बचपन में यह कहानी तो सुनी है। एक लकड़ी को तोड़ने की कोशिश की जाए तो वो आसानी से टूट जाती है और अगर लकड़ी के बंडल को तोड़ने की कोशिश की जाए तो वो आसानी से नही टूटता। इस बात को सीधे तरीके से समझा जाए तो। हम कह सकते है एकता में बल है। हमारा देश बहुत विशाल हैं। यहाँ अनके धर्मो के मानने वाले लोग रहते है। किसी भी राष्ट्र की खुशहाली के लिए एकता का होना बेहद लाजिमी है एक और एक से ग्यारह बन जाते है। सैकड़ों वर्षों की गुलामी सहने के बाद भी भारत की जनता ने बिना कोई मतभेद किए भारतीय होने का परिचय दिया।

भारत में अनेक जाति, धर्म और भाषाओं के लोग रहते हैं इसीलिए यहाँ रहने वाले लोगों के रहन-सहन, बोली, त्योहार और खानपान में काफी अंतर पाया जाता है परन्तु फिर भी सभी एक हार में गुंथी माला के समान है आपसी भाईचारा ही इन्हे जोडे़ रखता है। मैं शब्द अहं की भावना लिए हुए है अर्थात अकेला व्यक्ति कुछ नही कर सकता हम शब्द एकजुट होने का प्रतीक है।

मैं शब्द भाषावाद, जातिवाद, रंगभेद, भ्रष्टाचार और दूषित राजनीति आदि राष्ट्रीय एकता के अवरोधक तत्व है। जो हमारी राष्ट्रीय एकता की नींव को कमजोर करते हैं। इन्ही तत्वों के कारण खून-खराबे होते हैं।

देश में अनेक जाति व धर्म के लोग है। सबका खानपान, वेशभूषा अलग-अलग होने पर भी हम एकजूट होकर रहते हैं।

भगवान ने इस इच्छा से हम सब मनुष्यों का निर्माण किया है कि हम सब उसकी इस सृष्टि को अधिक सुंदर, सुखी और समृद्ध और अधिक समुचित बनाने में उसका हाथ बटाएं।

ईश्वर प्रदत्त इस दुनिया में जितने भी प्राणी तैर रहे हैं, उन सभी में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो स्वतंत्र जन्म लेता है। मनुष्य अपने आप ही समाज, परिवार और देश की जंजीरों से बंधता चला जाता है। आध्यात्म की दृष्टि से अधिक लोगों की आत्मीयता के बंधनों में बंधना सुख-दुख को मिल-जुलकर बाँटना, अपने अधिकारों को गौण रखते हुए कर्तव्य का पालन करना, पारिवारिकता है। परिवार में व्यक्ति अकेला रहकर कोई कार्य नहीं कर सकता। मिल-जुलकर कार्य करने से हर समस्याओं को समाधान किया जा सकता है। जिन परिवारों में मैं की भावना होती है। उनका कभी भी विकास नहीं हो सकता। मैं से घर नहीं बल्कि हम से घर बनता है समाज बनता है और हम शब्द हम सबको उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है। भारत एक ऐसी जनतांत्रिक पित्रसत्तात्मक सभ्यता प्रणाली वाला देश है। इसके अंदर रहने वाले मनुष्यों की मूल भावना वसुधैव कुटुंबकम है अर्थात पूरे विश्व में रहने वाले लोग एक बड़े कुटुंब के समान है एक अन्य अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि इस संसार पर जो भी प्राणी हैं वे सब मानवता के नाते, एक भावना के नाते, वो सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसी महती कल्याणकारी भावना के कारण ही हमारा देश भारत जगत गुरु और विश्ववंदनीय बना। यहाँ के प्राणियों की एक विशेषता पर आप यदि गौर करें तो (हाँलाकि अब वह पंरपरा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है) आप पाँएगे कि कोई खुद के लिए काम ही नहीं कर रहा। सबके सब अपने अपनों के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे हैं। कोई अपने माँ-बाप के लिए, कोई अपने बीवी बच्चों के लिए कमाता है। हर किसी को यहीं इच्छा रहती है कि उसके अपने कभी कष्ट में, किसी मुश्किल में न हों। हम हमारे अपनों के लिए कभी भी कोई समझौता नहीं करते चाहे वह स्वास्थ्य हों, चाहे व शिक्षा हो, मनोरंजन हो अथवा उनकी सुरक्षा। इसी भावना से मिलती-जुलती ही एक भावना हमारे अंदर और घर करती है और वो ये कि हम स्वयं की फिक्र बाद में करें पहले समाज की ओर जो हमारे दायित्व हैं उनको पूरा करें। हम व्यष्टि से समष्टि की ओर चले। दयानंद जी ने तो कहा भी था कि- कृणवंतो विश्वमार्यम अर्थात आओ विश्व को आर्य बनाते हुए चलें। ''मैं'' की भावना से ऊपर उठकर जब हम ''हम'' की भावना पर आते हैं। तब ही हम सभी की नजरों में आदरणीय और पूजनीय हो जाते हैं। इसी पवित्र भावना के बल पर ऋषि-मुनियों व संतो ने पतितों व समाज का उद्धार किया व एक नई राह दिखाई। - शिवानी कंदौला, प्रधानाचार्य

रायल पब्लिक स्कूल, शामली।


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