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संस्कारशाला:: आत्मबल एवं आत्मसंयम के लिए नैतिक बल को बढ़ाना भी परमावश्यक

ईश्वर अंस जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुखराशि अर्थात मानव शरीर में स्थित आत्मा शरीर का प्रमुख हिस्सा है।

By JagranEdited By: Published: Thu, 29 Oct 2020 01:16 AM (IST)Updated: Thu, 29 Oct 2020 01:16 AM (IST)
संस्कारशाला:: आत्मबल एवं आत्मसंयम के लिए नैतिक बल को बढ़ाना भी परमावश्यक
संस्कारशाला:: आत्मबल एवं आत्मसंयम के लिए नैतिक बल को बढ़ाना भी परमावश्यक

सम्भल: ईश्वर अंस जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुखराशि, अर्थात मानव शरीर में स्थित आत्मा शरीर का एक ही अंश है। मानव हृदय उस आत्मा को ग्रहण करने का एक माध्यम है। उसी शरीर में मन भी विद्यमान है। जो कि अत्यंत चंचल व चलायमान है। मन से तेज गति किसी की भी नहीं हो सकती। मन को वश में करना अत्यंत ही दुष्कर कार्य है, जिसने मन को वश में कर लिया उसने समस्त संसार को वश में कर लिया मन के हारे हार है मन के जीते जीत। आत्मसंयम का अर्थ है मन को वश में करना, इन्द्रियों को वश में करना। मन यदि वश में हो तो किसी भी प्रकार का लोभ, मोह व्यक्ति को पथ भृष्ट नहीं कर सकता। मन पर नियंत्रण रखने वाला व्यक्ति ही आत्मसंयम के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है।

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मानव जीवन में संयमशीलता की आवश्यकता को सभी विचारशील व्यक्तियों ने स्वीकार किया है। सांस्कृतिक व्यवहारों एवं सम्बन्धों को परिष्कृत एवं सुसंस्कृत रूप में स्थित रखने के लिए संयम की अत्यंत आवश्यकता होती है। संसार के प्रत्येक क्षेत्र में जीवन के प्रत्येक पहलू पर सफलता, विकास एवं उत्थान की ओर अग्रसर होने के लिए संयम की भारी आवश्यकता होती है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं वे सभी आत्मसंयम ही थे। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, गांधीजी आदि अनेकानेक उदाहरण हैं, जिन्होंने संसार को नई दिशा दी और आज भी उनके नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित हैं।

स्वामी विवेकानन्द के जीवन का एक मार्मिक प्रसंग मुझे याद आता है। एक बार स्वामी विवेकानन्द शिकागो सम्मेलन गए। वहां उन्होंने अंग्रेजों के मंच पर खड़े होकर माइक के सामने अपना वक्तव्य आरम्भ किया। उन्होंने कहा श्माई ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स ऑफ अमेरिकाश इस वाक्य को सुनकर समस्त अंग्रेज गदगद् हो गए और उनके पीछे-पीछे चलने लगे जब वह काफी दूर निकल गए तब भी बहुत सारे अंग्रेज उनके पीछे-पीछे आ रहे थे। स्वामी जी बोले यह हमारी भारतीय संस्कृति है। उन्होंने भारतीय संस्कृति के महत्व को समझाया तब जाकर अंग्रेज वापस लौटे। ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं, हिन्दी के प्रख्यात कवि गोस्वामी तुलसीदास जी को कौन नहीं जानता। पत्नी से अथाह प्रेम करने वाले केवल दो ही पंक्तियों से अपमानित होकर ईश्वर की शरण में चले गए। इसी प्रकार अष्टसिद्धि और नवनिधियों को धारण करने वाले अतुलित शक्ति सम्पन्न रामभक्त वीर हनुमान आत्मसंयम ही थे, जिन्होंने सैकड़ो कार्य प्रभु श्रीराम के किए। आजीवन कौमार्य रहकर केवल और केवल ईश्वर भक्ति को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझा। जब मनुष्य अपनी मानसिक वृत्तियों को बुरी आदतों और वासनाओं पर काबू पा लेता है तब ही उसके जीवन में आत्मसंयम आता है। संसार की विषय वासनाओं से अलग हटकर स्वयं को एकाग्रचित करके मन को संसार की भलाई एवं सत्कार्यों में लगाना ही आत्मसंयम है। आत्मबल एवं आत्मसंयम के लिए नैतिक बल को बढ़ाना भी परमावश्यक है। नैतिकता से ही समाज को नई दिशा प्रदान की जा सकती है।

यदि हम स्वयं आत्मसंयमी होगें तभी हम समाज में उन्नति की ओर अग्रसर रहेगें अन्यथा अवनति एवं निराशा ही हाथ आयेगी। महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था अपनी कामेन्द्रियों का संयम करते हुए जो मन से विषयों का चितन करता है, वह पाखंडी है। संयम का अर्थ है इस बात की समझ कि विषयों में सुख नहीं वह दुख का कारण हैं।

डॉ. विनीता रानी, एसोसिएट प्रोफेसर हिन्दी विभाग

केजीके पीजी कालेज, मुरादाबाद


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