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रवायत बेमिसाल, गांव में ही ससुराल

कुछ गांवों की अपनी खासियत होती हैं। कोई तमीज-ओ-तहजीब के लिए जाना जाता है तो कोई खास तालीम के लिए। कुंडा गादियान ऐसा ही अनोखा गांव है। मुल्क बंटा तो इलाके के 35 से अधिक गद्दियों के गांवों के लोग पाकिस्तान के हमराह हो गए लेकिन कुंडा वासियों के दिल में तो हिदुस्तान का चिराग रोशन था। तमाम दबाव पड़े बंदिशें भी झेलीं लेकिन इस मिट्टंी में पले-बढ़े पुरखों को फना होने के लिए भी यही मिट्टंी रास आई।

By JagranEdited By: Published: Tue, 03 Dec 2019 11:10 PM (IST)Updated: Wed, 04 Dec 2019 06:10 AM (IST)
रवायत बेमिसाल, गांव में ही ससुराल
रवायत बेमिसाल, गांव में ही ससुराल

सहारनपुर, जेएनएन।

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कुछ गांवों की अपनी खासियत होती हैं। कोई तमीज-ओ-तहजीब के लिए जाना जाता है तो कोई खास तालीम के लिए। कुंडा गादियान ऐसा ही अनोखा गांव है। मुल्क बंटा तो इलाके के 35 से अधिक गद्दियों के गांवों के लोग पाकिस्तान के हमराह हो गए लेकिन कुंडा वासियों के दिल में तो हिदुस्तान का चिराग रोशन था। तमाम दबाव पड़े, बंदिशें भी झेलीं लेकिन इस मिट्टंी में पले-बढ़े पुरखों को फना होने के लिए भी यही मिट्टंी रास आई। दूर-दूर तक बिरादरी के गांव नहीं होने के कारण सभी लोग अपने गांव में आपस में ही बेटा-बेटियों के रिश्ते करने लगे। यह परंपरा आज तक कायम है। सहारनपुर जिले के गांव कुंडा गादियान में घुसते ही लगेगा कि किसी अलग दुनिया में आ गए हैं। भाषा, वेशभूषा तथा संस्कृति के साथ-साथ गांव के बाशिदों की शक्ल-सूरत और कद-काठी भी अन्य लोगों से भिन्न है। ग्रामीणों का मुख्य पेशा खेती व पशुपालन है। करीब 100 बीघा क्षेत्र में फैले गांव की आबादी लगभग 3200 है।

ऐसे शुरू हुई परंपरा

आजादी के समय गद्दी बिरादरी के करनाल (हरियाणा) जनपद में 30-35 गांव थे। बंटवारे के समय इन गांवों के सभी लोग पाकिस्तान चले गए। तब से गद्दी बिरादरी का यह अकेला गांव रह गया। रिश्ते का कोई विकल्प नहीं मिलता। इसके चलते यहां के लोग अपने बेटे, बेटियों का ब्याह गांव में ही कर देते हैं। जलने लगा तालीम का चिराग

ग्राम प्रधान गुफरान, पूर्व प्रधान महमूद कहते हैं कि उनके बड़े-बुजुर्ग रियासत अली, अजीमुद्दीन, शाहनवाज मुखिया, अली नवाज, नूर मोहम्मद आदि पर पाकिस्तान जाने के लिये बिरादरी ने बहुत दबाव बनाया, लेकिन हिदुस्तान से मोहब्बत के कारण उन्होंने जाने से इन्कार कर दिया।

पूर्व प्रधान गफूर के अनुसार, बंटवारे से सैकड़ों साल पहले इस क्षेत्र में लंगड़ा व माघड़ नाम के दो लोग आकर बसे थे। एक पट्टी लंगड़े के नाम से जबकि दूसरी पट्टी माघड़ वालों के नाम से जानी जाती है। ग्राम प्रधान गुफरान कहते हैं, कभी गांव के लोग दीनी तालीम तक सीमित थे लेकिन अब बच्चों को शिक्षित करने पर जोर है।


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