लॉकडाउन में भी डाउन है अमृतफल का कारोबार
आंवला यानि औषधीय गुणों से भरपूर अमृत फल। इम्युनिटी बढ़ाने के लिए यह रामबाण माना जाता है। इससे बेशक प्रतापगढ़ की पहचान है लेकिन किसानों और स्थानीय व्यापारियों को कोरोना काल में भी फायदा नहीं हुआ।
जागरण संवाददाता, प्रतापगढ़ : आंवला यानि औषधीय गुणों से भरपूर अमृत फल। इम्युनिटी बढ़ाने के लिए यह रामबाण माना जाता है। इससे बेशक प्रतापगढ़ की पहचान है, लेकिन किसानों और स्थानीय व्यापारियों को कोरोना काल में भी फायदा नहीं हुआ। लाभ हुआ तो केवल उन बिचौलियों को जिन्होंने नामी-गिरामी आयुर्वेदिक कंपनियों के लिए किसानों से बाग या फिर मंडी में औने-पौने दाम में उपज खरीदी थी। लॉकडाउन में भी आंवला उत्पाद का कारोबार प्रभावित हुआ है।
जिले के आंवले की देश ही नहीं दुनिया भर में पहचान है। इसकी उपज से कई किसान व कारोबारी मालामाल भी हुए, लेकिन सभी नहीं। उत्थान के प्रयास आमतौर पर कागजी रहे। योगी आदित्यनाथ की सरकार ने इस फल को एक जिला-एक उत्पाद (ओडीओपी) में चुना है, लेकिन इससे भी तस्वीर नहीं बदली। कोरोना संकट काल में आंवले से बने उत्पाद कारखाने में ही पडे़ हैं। दरअसल होटल, ढाबे, रेस्टोरेंट बंद हैं, ऐसे में इसकी खपत कहां हो? मुरब्बा, कैंडी, अचार, बर्फी, लड्डू, पावडर, जूस बनाने वाले उत्पादक इसे बेच नहीं पा रहे हैं। आंवला कारोबारी अनुराग खंडेलवाल कहते हैं कि यह सीजन आंवले का है ही नहीं। पूर्व में जो उत्पाद बनाए गए थे वही नहीं बिक रहा है। इस जिले में आंवले के स्टोरेज की व्यवस्था अथवा परंपरा नहीं है। कटरा निवासी कोल्ड स्टोरेज संचालक विजय सिंह और प्रबंधक बच्चा सिंह का दावा है कि आज तक कोल्ड स्टोरेज में आंवला नहीं लाया गया। कहते हैं कि बाग से लेकर मंडी तक ही इसका सौदा हो जाता है। जिले में लगभग 13020 हेक्टेअर क्षेत्रफल में आंवले के बाग हैं। देशी, चकैया जैसी किस्म की उपज होती है। आंवला किसान असीम सिंह और ज्वाला सिंह के मुताबिक च्यवनप्राश बनाने वाली नामी गिरामी कंपनियां प्रतापगढ़ का आंवला तो उपयोग में लाती हैं लेकिन कंपनियों के किसानों तक सीधे नहीं पहुंच पाते, इसलिए समुचित दाम नहीं मिलता।
मार्केट कनेक्शन की जरूरत
प्रतापगढ़ के आंवला की मैंपिग, ब्रांडिग और पैकेजिग के लिए सरकार के स्तर पर व्यवस्था नहीं हो सकी है। दूसरे शब्दों में कहें तो मार्केट कनेक्शन नहीं है, जबकि जिले में छह विकास खंड आंवला फल पट्टी कहलाते हैं। सरकारी उपेक्षा से उत्पादकों को मुनाफा नहीं मिल पाता। कारोबारी वन विभाग के ट्रांजिट परमिट सिस्टम के भी पीड़ित हैं। इसे वनोपज मानकर वन विभाग टैक्स वसूलता है। निराश होकर तमाम किसान पेड़ों को ही कटवा चुके हैं।