जिन नयनों के लिए काजल पागा, आज उन्हीं ने दिए आंसू
दिवाली पर जिन बच्चों की आंखों की सलामती के लिए काजल पागा आज उन्हीं आंखों को देखने के लिए नयन तरसते हैं। जिन नयनों की चंचल मस्ती कभी सारी थकान मिटाकर ममता उद्वेलित करती थी आज वही निगाहें तिरछी हो गई हैं। न पूजा का चौक बचा न बचे पकवान और न ही अपनों का साथ।
पीलीभीत,जेएनएन : दिवाली पर जिन बच्चों की आंखों की सलामती के लिए काजल पागा, आज उन्हीं आंखों को देखने के लिए नयन तरसते हैं। जिन नयनों की चंचल मस्ती कभी सारी थकान मिटाकर ममता उद्वेलित करती थी, आज वही निगाहें तिरछी हो गई हैं। न पूजा का चौक बचा, न बचे पकवान और न ही अपनों का साथ। उम्र के अंतिम पड़ाव पर मिली बेबसी, बेरूखी और लाचारी की मार ने अंतर्मन तक तोड़कर रख दिया है..यह कहते हुए कलावती की आंखें भर आती हैं। कलावती सिर का पल्लू संभालते हुए आंसू पोछती हैं। इस स्थिति को देखकर फिर आगे कुछ पूछने या कहने का साहस नहीं जुटता। कमरे में उलझनों भरा सन्नाटा जो कचोट सा रहा है।
दिवाली पर जब हम लोग अपने-अपने घरों में स्वजनों के साथ दीप जलाकर खुशियां मना रहे होंगे, तब कुछ आंखें डबडबाई सी अपने अतीत को देख रही होंगी। वर्तमान और भविष्य के अंधियारे में अतीत की गहराइयों में संजोए हुए कुछ खुशीनुमा पल यादकर उजियारा तलाशने की कोशिश कर रही होंगी। शहर के ग्राम- बरहा स्थित वृद्धाश्रम में 19 लोग रह रहे हैं। कलावती की कहानी हो या कृष्णकुमारी की या फिर विद्यामती की, सभी की जिदगी एक ही उलझन से बंधी हुई है।
दीपावली का पर्व परिवार व समाज में खुशियां लेकर आता है। इन वृद्धजनों के लिए दिवाली का मतलब एक आम दिन से बढ़कर और कुछ नहीं है। अगर कोई आकर इन्हें एक फल दे जाए तो उसे अपनी औलाद से बढ़कर स्नेह देते हैं। कोई इनके पास ठहरकर दो पल बात कर ले तो सारा अपनतत्व लुटाने को तैयार हो जाते हैं। अपनों की याद में रात-दिन सिसकते हैं। फिर भी अपने बच्चों को कसूरवार नहीं बताते। बच्चों को भले ही उनकी फिक्र न हो, लेकिन वृद्धजन बच्चों की फिक्र करते हैं और कहते हैं- अगर हमने उन्हें कसूरवार ठहराया तो समाज में उनका मान कम हो जाएगा।
वृद्धाश्रम में रहने वाले अशोक गुप्ता का कहना है कि यह जीवन का सच है और इसके साथ ही जीवनयापन करना है। यादें सताती हैं लेकिन वृद्धाश्रम में एक-दूसरे का सहारा बनकर जिदगी काटने की आदत पड़ गई है।