कारीगरों के चेहरे पर आई उम्मीदों की किरण
-मोदी तो गरीबों के लिए बहुत कुछ कहना चाहते हैंअधिकारी बने रोड़ा - कुम्हारी कला से गढ़ रहे गणेश-लक्ष्मी की जीवंत मूर्तियां - त्योहारी सीजन के बाद तो फिर पूरे साल खाली रह जाते हैं हुनरमंद हाथ फोटो-22पीआइएलपी-12
मनोज मिश्र, पीलीभीत : चेहरे पर झुर्रियों के बीच सफेद मूंछे। उम्र 70 के पार लेकिन धुंधली हो रही आंखों में उम्मीदों की किरण लिए अपने काम में पूरी तरह तल्लीन इस शख्स का नाम है कांता प्रसाद प्रजापति। दीपावली का पर्व आते ही उनकी आंखों मे चमक बढ़ जाती है। यही एक ऐसा त्योहार है, जब चार पैसे कमाने का समय होता है। शहर के मुहल्ला तुलाराम में घनी आबादी के बीच तंग गलियों में जर्जर हो चुके मकान की एक छोटी सी कोठरी में जिदगी गुजार रहे वृद्ध की कार्यशाला भी उसी में है। मंगलवार को दोपहर जागरण टीम जब इस घर में पहुंची तो बुजुर्गवार अपनी बनाई गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियों में रंग भरते नजर आए। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो उलाहना देने वाले लहजे में बोले-मोदी तो गरीब-गुरबा के लिए बहुत कुछ कहना चाहते हैं लेकिन अधिकारी मनमानी से बाज नहीं आ रहे। कई साल पहले प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ देने के लिए आवेदन किया लेकिन अफसरों की मेहरबानी नहीं हुई। बांस की खपच्चों के सहारे पन्नी डालकर बनाई गई कोठरी की छत की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि मेरी गरीबी उन्हें दिखाई नहीं देती। बाद में पत्नी देवकी के नाम से भी फार्म जमा किया लेकिन अब तक आवास स्वीकृत नहीं हुआ।
कुम्हारी कला में निपुण बुजुर्ग बड़े गर्व के साथ बताते हैं कि तीन बेटियां हैं, खुद अनपढ़ होते हुए भी पेटियों को दसवीं तक शिक्षा दिलाई और फिर तीनों की शादी कर दी। वह बताते हैं कि आषाढ़ के महीने से ही वह मूर्तियां बनाने की तैयारी शुरू कर देते हैं। दशहरा पर बच्चों के लिए मिट्टी के खिलाना और दिवाली पर गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां बनाते हैं। अगर कहीं से आर्डर मिल जाए तो मूर्ति तैयार कर देते हैं, वरना खाली रहना पड़ता है। इस मुहल्ले में कुम्हारी कला का कार्य करने वाले कुल 80 परिवार हैं।
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पूर्वजों के इस पेशे के प्रति शौक है, वरना अब इससे गुजारा नहीं होता। क्योंकि मिट्टी तलाशने, उसे तैयार करके मूर्तियां बनाने, सुखाने, पकाने और फिर रंग भरने के काम में बहुत मेहनत लगती है लेकिन उसका मूल्य उतना नहीं मिल पाता है।
अजय कुमार प्रजापति
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बेटी के साथ मिलकर मूर्तियां बनाते हैं। फिर दिवाली पर सड़क किनारे कहीं स्थान तलाशना होता है। जिससे मूर्तियां बेचकर त्योहार पर कुछ कमाई हो जाती है। वरना फिर साल भर तक खाली ही रहना है।
सुशीला देवी
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अब बूढ़े हो गए हैं। आंखों से दिखाई भी कम पड़ने लगा है। वैसे मैंने अपने जीवन में तमाम मूर्तियां गढ़ी हैं। अब परिवार के अन्य सदस्य दिवाली पर गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां तैयार करके बेचते हैं।
प्रेम नरायन प्रजापति
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कुम्हारी कला में अब कमाई नाममात्र रह गई है। मिट्टी भी काफी मंहगी मिल रही है। सबसे ज्यादा समस्या तैयार मूर्तियों को बेचने में आती है। बाजार में जहां लगाते हैं, वह दो-तीन हजार रुपये किराया मांगा जाता है।
कुसुम देवी