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बांसुरिया..'कच्चा माल' पुकारे

पीलीभीत : गजब की बांसुरी बजती थी मुरलीधर कन्हैया की .. से लेकर फिल्म बलमा में बांसुरिया अब

By JagranEdited By: Published: Sat, 20 Jan 2018 10:43 PM (IST)Updated: Sat, 20 Jan 2018 10:43 PM (IST)
बांसुरिया..'कच्चा माल' पुकारे
बांसुरिया..'कच्चा माल' पुकारे

पीलीभीत : गजब की बांसुरी बजती थी मुरलीधर कन्हैया की .. से लेकर फिल्म बलमा में बांसुरिया अब ये ही पुकारे तक संगीत की दुनिया में धूम मचाने वाली बांसुरी की तान अब संकट के दौर से गुजर रही है। एक ओर केंद्र सरकार कौशल विकास पर पूरा जोर दे रहे है, दूसरी ओर कच्चे माल की अनुपलब्धता के कारण बांसुरी बनाने वाले हजारों हुनरमंद हाथ पर हाथ रखे बैठने को मजबूर हैं। केंद्र सरकार ने 2006-07 में कृषि मंत्रालय एवं वन मंत्रालय के संयुक्त उपक्रम के रूप में राष्ट्रीय बैंबू मिशन की शुरुआत की तो उम्मीद जगी कि तराई के दलदल में होने वाले बांस की खेती से जहां बांसुरी उद्योग को फिर पंख लग सकेंगे। वहीं, कोठी से लेकर झोपड़ी में काम आने वाले बांस से अन्य कुटीर उद्योग फलफूल सकेंगे। वन विभाग ने इसकी शुरुआत भी किया, लेकिन मजबूत इच्छा शक्ति के अभाव में यह प्रयास दम तोड़ गया। अब बांसुरी उद्योग से जुड़े लोगों को उम्मीद है कि अगर सरकार कच्चे माल की आसान व सस्ती उपलब्धता सुनिश्चित कर दे तो पीलीभीत की बांसुरी की तान फिर देश भर में गूंज सकती है।

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पीलीभीत में बांसुरी उद्योग का उछ्वव स्थानीय रोजगार की आवश्यकता एवं कच्चे माल की उपलब्धता पर आधारित है। यहां आबादी शुरू होने के साथ ही सदियों पहले भूमिहीन शहरी गरीब परिवार बांसुरी व खड़ाऊं के व्यवसाय से जुड़ गए। इसका खास कारण था, जंगल में खड़ाऊं की लकड़ी व चोरगलिया (अब उत्तराखंड में) की दलदली भूमि में पतले बांस की उपलब्धता। धीरे-धीरे जब आबादी बढ़ने के साथ चोरगलिया के आसपास बांस की उपलब्धता कम हुई तो सिल्चर (आसोम) से बांस मंगाया जाने लगा। यह बांस ट्रेन ट्रांसपोर्ट के माध्यम से आता रहा, जिसमें लोड-अनलोड में नुकसान भी खूब होने लगा। इसका असर सीधे बांस के मूल्य पर पड़ने लगा। थोक में बांस मंगाने का काम भी बड़े व्यापारी करने लगे और वही कारीगरों का बतौर मजदूर इस्तेमाल करने लगे। पहले पीलीभीत के डालचंद, बिजली घर, खैरुल्लाह शाह, मदीना शाह, बेनी चौधरी, शेर मोहम्मद आदि मुहल्लों में भोर होते ही घर-घर भट्ठियां जल जाती थीं और कोई बांस काटता हुआ तो कोई छेद बनाता हुआ तो कोई अरहर की लकड़ी का डाट बनाता हुआ दिखाई पड़ता था। पहले करीब दो हजार परिवार इस व्यवसाय से सीधे जुड़े थे, लेकिन अब बमुश्किल दो सैकड़ा परिवार ही जुड़े हैं। इसका कारण कच्चा माल की अनुपलब्धता, महंगा मिलना तथा बाजार में चाइनीज व प्लास्टिक की बांसुरी से स्पर्धा भी है। चाइना व प्लास्टिक की बांसुरी सस्ती पड़ती है, जबकि लागत मूल्य बढ़ जाने से पीलीभीत की बांसुरी अपेक्षाकृत महंगी है। वहीं, खड़ाऊं का व्यवसाय तो पूरी तरह बंद ही हो गया। बैंबू की खेती को प्रोत्साहन व बांस पर सब्सिडी देकर सरकार इस कुटीर उद्योग को बचा सकती है।

बांस की हो खेती

तराई की दलदली भूमि बांस की खेती के लिए बेहद मुफीद है। पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह यहां भी बांस की बेहतर और लाभप्रद खेती हो सकती है। इससे न केवल बांसुरी उद्योग को ऑक्सीजन मिल सकेगा बल्कि बांस के फर्नीचर से लेकर लैंप आदि सजावटी सामान आदि तैयार करने से कई प्रकार के कुटीर उद्योग विकसित हो सकते हैं। अब तो फाइव स्टार कल्चर में बैंबू डिश व बैंबू अचार तक आ गया है। बैंबू मिशन की शुरुआत के बाद पीलीभीत में सामाजिक वानिकी ने बैंबू की नर्सरी भी लगाई थी, लेकिन संबंधित विभागों के बीच बेहतर तालमेल न होने से यह कोशिश परवान नहीं चढ़ सकी। किसानों को बांस की खेती की ओर उन्मुख करने के लिए सरकारी स्तर पर भी प्रयास जरूरी है। बांस की खेती का यह भी लाभ होगा कि इससे फलदार व अन्य वृक्षों का नुकसान रोका जा सकेगा।

-परवेज हनीफ, पूर्व सदस्य नेशनल बैंबू मिशन।


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