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विस्थापित होने का झेला दंश, मेहनत से पाई मंजिल

मुल्क जब आजाद हुआ तो सिधी समाज के लोगों में काफी खुशी थी लेकिन इस बात का गम भी रहा कि बंटवारे के कारण उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन छोड़कर विस्थापित होना पड़ रहा है। सिध प्रांत में अपना जमा जमाया कारोबार खेती छोड़कर आए सिधी समाज के विस्थापित परिवारों को बहुत संघर्ष करना पड़ा। जल्दबाजी में वे सिर्फ नकदी सोना व चांदी जो भी पास में था उसे ही लेकर चल दिए थे।

By JagranEdited By: Published: Mon, 12 Apr 2021 11:53 PM (IST)Updated: Mon, 12 Apr 2021 11:53 PM (IST)
विस्थापित होने का झेला दंश, मेहनत से पाई मंजिल
विस्थापित होने का झेला दंश, मेहनत से पाई मंजिल

पीलीभीत,जेएनएन : मुल्क जब आजाद हुआ तो सिधी समाज के लोगों में काफी खुशी थी लेकिन इस बात का गम भी रहा कि बंटवारे के कारण उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन छोड़कर विस्थापित होना पड़ रहा है। सिध प्रांत में अपना जमा जमाया कारोबार, खेती छोड़कर आए सिधी समाज के विस्थापित परिवारों को बहुत संघर्ष करना पड़ा। जल्दबाजी में वे सिर्फ नकदी, सोना व चांदी जो भी पास में था, उसे ही लेकर चल दिए थे।

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विस्थापित होने के बाद भारत में आए सिधी समाज के लोग देश में जहां भी स्थान मिला, वहां जा पहुंचे। उनके पास न कोई कारोबार था, न सिर ढकने को छत। उस दौर में तराई के इस शहर में भी अनेक सिधी परिवार यहां आए और बस गए। परिवार का पेट पालने के लिए छोटे स्तर से विभिन्न तरह के व्यवसाय शुरू किए। फिर अपनी लगन और परिश्रम से कारोबार में तरक्की करते गए। उन परिवारों की नई पीढि़यां अब खुशहाल है। उन्होंने अपने बलबूते कारोबार में समृद्धि हासिल की है। यहां की अर्थव्यवस्था में सिधी समाज के लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है। हमारा परिवार सिध में जिला सक्कड़ के चौथी बाजार में रहता था। दादाजी का अनाज का कारोबार था। पिता ईश्वर दास राजानी तब पढ़ाई कर रहे थे। मुल्क के बंटवारे के बाद परिवार यहां आ बसा। पिताजी की कलक्ट्रेट में सरकारी नौकरी लग गई थी। बाद में विकास भवन में नौकरी पा गया। मेरे अन्य भाई कारोबार में लग गए। शुरुआती दौर में काफी संघर्ष करना पड़ा लेकिन फिर जिदगी की गाड़ी अपनी रफ्तार से चल पड़ी। रिटायर होने के बाद अब मेरा रीयल एस्टेट का कारोबार है। साथ ही गेस्टहाउस का संचालन कर रहे हैं।

दुर्गादास राजानी मेरा परिवार सिध में जब रहता था तो वहां भी कपड़े का कारोबार था। विस्थापित होकर जहां पिता और दादाजी यहां आए तो यहां भी शुरुआत कपड़े के व्यवसाय से ही की थी। यह हमारा पुश्तैनी कारोबार था। इसी का परिवार को अनुभव था। अपनी मेहनत से धीरे-धीरे उसे बढ़ाते गए। शुरू में काफी संघर्ष करना पड़ा लेकिन मेहनत और ईमानदारी के साथ ही अपने व्यवहार की बदौलत कारोबार में सफलता पाई।

धर्मेंद्र निमरानी

पिताजी स्वर्गीय विशन कुमार धामेजा बंटवारे के बाद 1947 में परिवार समेत सीतापुर में बस गए थे। वहां फुटपाथ पर फड़ लगाकर कपड़े बेचे। वर्ष 1964 में जब यहां आकर बसे, उसके बाद ईंट भट्ठा लगाया। लंबे समय तक यही कारोबार रहा। अब नई पीढ़ी ईंट भट्ठा चलाना नहीं चाहती, इसलिए शिक्षण संस्थान स्थापित कर लिया है। वर्ष 1966 से लेकर 2012 तक मेरे परिवार की ओर से पूर्णागिरि धाम में लगातार शिविर लगाया जाता रहा। पिताजी धार्मिक स्वभाव के व्यक्ति थे। उस दौर में पूर्णागिरि की यात्रा काफी दुर्गम हुआ करती थी। हमारा परिवार सिध में सक्कड़ जिले के गांव पटनी में रहता था। वहां दादाजी खेतीबाड़ी किया करते थे। विस्थापित हुए तो जमीन छोड़कर आना पड़ा था।

सुरेश कुमार धामेजा


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