ऋषि-कृषि की परंपरा से लहलहाईं फसलें
पीलीभीत : तीन जिलों की सीमा पीलीभीत, शाहजहापुर और लखीमपुर खीरी पर बियावान जंगल के बीच चार
पीलीभीत : तीन जिलों की सीमा पीलीभीत, शाहजहापुर और लखीमपुर खीरी पर बियावान जंगल के बीच चारों पहर उठने वाली स्वाहा-स्वाहा की आवाज हर किसी को बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। यहा सिख पंथ से जुड़े रहे संत बाबा बिरसा सिंह की ओर से स्थापित एक आश्रम है, जिसे स्थानीय लोग चलतुआ आश्रम के नाम से जानते हैं। सिख और यज्ञ सुनकर शायद आप हैरत में पड़ गए होंगे। इसे यकीन में बदलने पहुंचेंगे तो पाएंगे कि यहा संत भिक्षाटन या चढ़ावा पर आश्रित न होकर खेती में भरपूर पसीना बहाते हैं। करीब एक हजार एकड़ में फैले इस फार्म के अधिकाश भूभाग पर जैविक अथवा न्यूनतम उर्वरक वाली खेती होती है। यजुर्वेद की ऋचा (18-9) कृषिश्च में यज्ञेन कल्पनाम.. का साकार रूप यहा साक्षात दिखाई पड़ रहा है। भले ही आज जब पूरी दुनिया अग्निहोत्र कृषि (हवन से खेती) पर तमाम प्रकार के शोध कर रही है, लेकिन यहा तो खेतों के बीच 34 वषरें से लगातार यज्ञ की लौ प्रज्जवलित है।
संघर्ष की कथा
देश के बंटवारे के बाद राजाजंग पश्चिमी पाकिस्तान से एक संधू परिवार मुक्तसर पंजाब में आकर बसा। इसी परिवार के थे बाबा बिरसा सिंह, जो बचपन से ही बाबा श्रीचंद के उदासीन संप्रदाय से प्रभावित थे। बाल्यावस्था में उन्होंने संन्यास ले लिया, लेकिन खुद को सदैव कृषि कार्य से जोड़े रखा। बाबा का पूरा जोर था नियमित हवन पर, जिसका उस वक्त सिख संप्रदाय में विरोध भी हुआ, लेकिन वह नहीं माने। जून 1967 में बाबा ने छतरपुर दिल्ली में पहाड़ियों पर एक आश्रम स्थापित किया और वहा भी नियमित हवन होने लगा, जो आज तक बदस्तूर जारी है। यहा बाबा खुद अपने हाथ से जुताई से लेकर खेती के सभी काम करते थे और ऐसा करने के लिए सबको प्रेरित भी करते थे। उनका मानना था कि खेती भी साधना ही है, क्योंकि इससे किसी भी भूखे को रोटी दी जा सकती है। बाबा को 1982 में एक रेलवे के बड़े अधिकारी ने आश्चर्यजनक रूप से करीब एक हजार एकड़ का कृषि फार्म दान में दे दिया। वर्ष 1984 में बाबा ने रणवीर सिंह, ज्ञानी व बाबा भूपेंद्र सिंह को मैलानी के निकट जंगल के बीच स्थित इस फार्म पर भेज कर हनुमान जी व देवी की स्थापना करवाई और भोलेनाथ की अखंड धूनी प्रज्जवलित करवा दी तबसे यहा अनवरत यह धूनी प्रज्ज्वलित है, जहा चारों प्रहर लोग हवन करते हैं। तब यह पूरा भूभाग जंगल से घिरा था। यहा पर रहने वाले साधकों ने साधना के साथ ही उबड़-खाबड़ भूमि को समतल करके खेती योग्य बनाना शुरू किया। धीरे-धीरे यहा एक गोशाला भी स्थापित की गई। आश्रम के प्रत्येक सदस्य को हर रोज खेत या गोशाला में अपना योगदान हरहाल में देना होता है।
नहीं रहा वन्यजीव से खतरा
स्थापना काल से जुड़े बाबा भूपेंद्र बताते हैं कि यह बाघ प्रभावित क्षेत्र है। दुधवा की किशनगंज सेंचुरी की सीमा आश्रम के खेत से लगी है, लेकिन अभी तक किसी भी वन्यजीव ने आश्रम के किसी भी व्यक्ति या जानवर को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। गन्ना, धान, गेहूं, तिलहन, दलहन आदि की फसलें जैविक अथवा न्यूनतम उर्वरक के उपयोग वाली होती हैं। बाबा जी बताते थे कि नियमित हवन आदमी से लेकर भूमि व फसल तक को शक्ति प्रदान करता है, इसलिए जहा हवन होगा, वहा खेती स्वत: बढि़या होगी। इसके लिए जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदि नाथ ऋषभदेव के कथन को दोहराते थे कि ऋाषि बनो, कृषि करो।
वैज्ञानिक भी स्वीकारते हैं अग्निहोत्र कृषि
कृषि संबंधी सबसे प्राचीन ग्रंथ पाराशर ऋषि द्वारा लिखित कृषि संग्रह, कृषि पाराशर व पाराशर तंत्र माना जाता है, जिसमें भी अग्निहोत्र और खेती का संबंध बताया गया है। वेद में भी इसका विस्तृत वर्णन है। देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार समेत महाराष्ट्र व अन्य राज्यों में भी वैज्ञानिक अग्निहोत्र कृषि को स्वीकारते हुए इस पर नए शोध कर रहे। इतना ही नहीं दुनिया के कई देशों में इस दिशा में शोध हो रहे हैं, लेकिन चलतुआ आश्रम में यह प्रयोग तो पिछले 34 सालों से चल रहा है।
अनवरत चल रहे हवन के कारण ही यहा बेहतर खेती हो रही है। सामान्य से अधिक उत्पादन हो रहा है। फसलें रोग रहित होती हैं। खेतों में सिर्फ गोबर की खाद और हवन की भभूत डाली जाती है। तमाम लोग शारीरिक कष्ट में भी हवन की भभूत ले जाते हैं। यज्ञोपैथी भी चिकित्सा की एक पद्धति है। जंगल में पहले तो लगता था कि यहा रहना मुश्किल होगा, लेकिन यज्ञ का प्रभाव है कि सभी साधक निर्भय होकर रहते हैं।
-बाबा भूपेंद्र सिंह, व्यवस्थापक चलतुआ आश्रम
आश्रम की गोशाला में सभी देशी प्रजाति की गाएं हैं, जो खूब दूध देती हैं। यहा हवन व आए दिन होने वाले भंडारे में यहीं बनाया गया घी प्रयोग में लाया जाता है। गोशाला से गोबर व गोमूत्र भी खूब मिल जाता है, जिसका उपयोग खेत में हो जाता है। कभी कोई गाय यहा बीमार नहीं पड़ी और न ही किसी जंगली जानवर का शिकार बनीं, जबकि चरने के लिए छोड़ी जाती है।
-बल्देव सिंह, गोशाला सेवादार