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कुछ जरूरी सवाल जो कब से मुल्तवी हैं, पढ़िए यूपी की IPS अफसर के दिल की बात, कैसे खास होता है रिश्‍ता

यूपी गौतमबुद्ध नगर में पोस्‍टेड महिला आइपीएस अधिकारी ने एक खत के जरिए अपनी भावानाओं को जनता के सामने खुले मंच पर रखा है। पढ़िए कैसे एक रिश्‍ता कैसे दिन- रात धीरे-धीरे खास हो जाता है। दिल को छू लेने वाली स्‍टोरी।

By Prateek KumarEdited By: Published: Sat, 14 Nov 2020 06:32 PM (IST)Updated: Sat, 14 Nov 2020 06:32 PM (IST)
कुछ जरूरी सवाल जो कब से मुल्तवी हैं, पढ़िए यूपी की IPS अफसर के दिल की बात, कैसे खास होता है रिश्‍ता
श्रद्धा पांडेय 2017 बैच की आईपीएस अधिकारी हैं।

नोएडा, प्रवीण सिंह। जब मैं आपसे अपने परिवार, देश और इस धरती के भविष्य के बारे में सोचने को कहती हूं तो आपके दिमाग में पहला विचार क्या आता है? अर्थशास्त्र और इकोलॉजी यानी वर्तमान परिस्थिति। शायद स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय के कुछ बड़े विचार। हाल ही में मैं इस नतीजे पर पहुंची हूं कि पूरी प्रक्रिया में हम एक बहुत महत्वपूर्ण चीज भूल गए हैं। अपने गर्भ में नए जीवन को धारण किए मां का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य। बच्चा, जो भविष्य का नागरिक है, जिसके लिए हम परिवार, देश और समूची धरती को बेहतर बनाने की बात करते हैं। इस संबंध में भी पर्याप्त अध्ययन और शोध हो चुके हैं कि यदि मां तनाव में हो तो उसका भ्रूण पर क्या प्रभाव पड़ता है। तनाव की स्थिति में शरीर से कॉर्टिसोल और एड्रेनलाइन जैसे हॉर्मोन निकलते हैं, जो भ्रूण पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। इससे वक्त से पहले प्रसव और प्रसव के बाद बच्चे के विकास में भी दिक्कतें आ सकती हैं।

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बड़े-बुजुर्ग गर्भावस्था के दौरान मां को खुश रखने पर देते हैं विशेष जोर

इसलिए हमारे बड़े-बुजुर्ग गर्भावस्था के दौरान मां को खुश रखने पर विशेष जोर देते हैं। ईमानदारी की बात तो ये है कि मैंने भी इस विषय पर ज्यादा कभी नहीं सोचा था, जब तक कि मैंने खुद अपने गर्भ में नए जीवन को धारण नहीं किया। मैंने मां बनने के अनुभवों के बारे में सोचना शुरू किया और अपने आसपास की अन्य स्त्रियों को देखने लगी। मैंने महिला सिपाहियों से इस बारे में बातचीत शुरू की।

महिला कांस्‍टेबल से बात कर बदला नजरिया

उन्‍होंने कहा कि मुझे यह जानकार आश्चर्य हुआ कि कैसे एक महिला कांस्टेबल को विपरीत परिस्थिति में नौकरी करनी पड़ती है, खैर वो कहानी फिर कभी। मेरा दुख और आश्चर्य तब और गहरा हो गया, जब मां ने गर्भवती होने के बाद के अपने जीवन की कहानी सुनानी शुरू की। भारत में मातृत्व अवकाश छह महीने का है। इसका अर्थ है कि उस महिला कांस्टेबल ने अपनी गर्भवस्था के नौवें महीने में छुट्टी ली है तो जब वह काम पर वापस लौटेगी तो उसका बच्चा पांच महीने का होगा। इस तरह पांच महीने बाद जब वह काम पर लौटी, तब भी अपने बच्चे को स्तनपान करा रही होगी। इसका मतलब यह हुआ कि शारीरिक रूप से वह अब भी फील्ड के कठिन काम करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। वह अपने बच्चे को घर पर छोड़कर आई है।

एक्‍टिव होता है मस्‍तिष्‍क का खास हिस्‍सा

कुछ अध्ययन यह बताते हैं कि हमारे मस्तिष्क में एक हिस्सा होता है, जिसका नाम है एमिगडला। मस्तिष्क का यह हिस्सा हमें निरंतर सचेत और सावधान करता रहता है। जब कोई स्त्री बच्चे को जन्म देती है तो उसके मस्तिष्क का यह हिस्सा पूरी तरह सक्रिय हो जाता है और आजीवन सक्रिय रहता है। यही कारण है कि स्त्रियां कभी अपने बच्चे की फिक्र करना नहीं छोड़ पातीं, चाहे बच्चे कितने भी बड़े क्यों न हो जाएं। बच्चे के जन्म के पांच महीने बाद एक स्त्री काम पर वापस आती है। उसके शरीर और मन दोनों को वापस पटरी पर लौटने में कुछ वक्त तो लगेगा। बच्चे की नींद को वयस्कों की निद्रा चक्र के अनुसार ढलने में एक साल का वक्त लगता है। इसका मतलब है कि एक साल का होने के बाद बच्चा बड़ों की तरह पूरी रात सोना शुरू करेगा। अभी जब वह छोटा है तो कौन है, जो नन्ही सी जान के साथ पूरी-पूरी रात जागता है।

मां का दूघ ही संपूर्ण आहार

छह महीने के बाद भी बच्चे को स्तनपान की जरूरत होती है। मां का दूध ही बच्चे का संपूर्ण आहार है। अध्ययन यह बताते हैं? कि कैसे मां का दूध बच्चे की जरूरत के मुताबिक परिवर्तित होता है। वह लड़के और लड़की की शारीरिक जरूरत के मुताबिक अलग होता है। यदि बच्चा बीमार हो तो मां के दूध में वो सारे अतिरिक्त पोषक तत्व स्वतः आ जाते हैं, जो बच्चे के स्वस्थ होने में मददगार हों। क्या हमारे पास ऐसी माताओं के लिए कोई व्यवस्था, कोई सुविधा, कोई इंफ्रास्ट्रक्चर है, जो अपने बच्चों को मातृत्व अवकाश खत्म होने के बाद भी स्तनपान कराना चाहती हैं?

जीवन के शुरुआती सालों में एक बच्चे के साथ लगातार वक्त बिताने और उसके साथ संवाद करने की जरूरत होती है ताकि उसका संपूर्ण बेहतर विकास हो सके। लेकिन, अधिकांश कामकाजी महिलाएं फुलटाइम नौकरी के साथ बच्चे को इतना वक्त नहीं दे पातीं। पुरुष को तो पिता बनने पर सिर्फ 15 दिन की छुट्टी मिलती है और वह भी सिर्फ संगठित क्षेत्र में। वो बच्चे बहुत भाग्यशाली हैं, जिनके पास दादा-दादी या नाना-नानी हैं। जो जगह माता-पिता की गैरमौजूदगी से खाली हुई है, उस कमी को वो पूरा कर रहे हैं, लेकिन हर कोई इतना भाग्यशाली नहीं होता कि उसके पास यह सपोर्ट सिस्टम मौजूद हो। क्या बतौर एक समाज अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए हम यह कीमत चुकाने को तैयार हैं कि उनका संपूर्ण विकास भी न हो पाए?

बच्‍चे ने नहीं खाया खाना तो तनाव में मां का हुआ एक्‍सीडेंट

एक महिला कांस्टेबल ने अपना अनुभव बताया कि कैसे वो परिवार से दूर अपनी पोस्टिंग की जगह पर दो बेटियों के साथ अकेले रहती थी। काम पर जान से पहले उसे अपनी छोटी बेटी को दूध पिलाना और दूसरी बेटी को तैयार करके स्कूल भेजना पड़ता था। वह कभी भी वक्त पर दफ्तर नहीं पहुंच पाती और उसे ऐसे कमेंट सुनने को मिलते है कि महिला कांस्टेबल तो 'मुफ्त की तंख्वाह' लेती हैं। एक दिन जब उसे दफ्तर में देर हो गई तो उसकी बड़ी बेटी बार-बार उसे फोन करके यह कहती रही कि छोटी वाली कुछ खा नहीं रही है। उसे इस बात से इतनी चिंता और तनाव हुआ कि काम से छूटते ही वो बहुत तेज गति से अपनी स्कूटी चलाते हुए घर को भागी। इस तनाव में रास्ते में उसका एक्सीडेंट हो गया और वो 45 दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रही। आप इसे उसकी लापरवाही या धैर्य की कमी भी कह सकते है, या फिर बच्चे की फिक्र में परेशान उसका सक्रिय एमिगडला और दफ्तर में लगातार खुद को साबित करने का यह दबाव कि वो 'कामचोर' नहीं है।

एक दूसरी महिला ने मुझे बताया कि लॉकडाउन के दौरान वो अपने बच्चों को घर में ताला बंद करके काम पर आती थी क्योंकि स्कूल बंद थे। दफ्तर में उसका पूरा वक्त बच्चों की फिक्र में बीतता। घर में कहीं से कोई घुस आया तो, सांप आ गया तो। शादी के बाद उस दंपती की जिंदगी के बारे में क्या ही कहा जाए। दोनों कांस्टेबल हैं। उनमें से एक को रोज सुबह गर्मा गरम नाश्ता और टिफिन तैयार मिलता है। उसकी वर्दी धुलकर और इस्तरी करके रखी होती है, उसके बच्चे वक्त पर स्कूल छोड़े और वापस लाए जाते हैं और रात में उसे गर्मा गरम डिनर परोसा जाता है।

महिला कांस्टेबल की तुलना की जाती है और पूछा जाता है- "अगर वो कर सकता है तो तुम क्यों नहीं कर सकती?" औरतों के शरीर और मनोविज्ञान की संरचना ऐसी है कि वह मां बन सकें। गर्भ धारण करने के बाद उनमें ऐसे मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होते हैं, जो बच्चे को प्यार करने, उसका ख्याल करने, उसका पोषण करने के लिए जरूरी हैं। यह अच्छा और जरूरी बदलाव है। स्त्री के कंधों पर मनुष्यों की नई पीढ़ी को तैयार करने का बड़ा उत्तरदायित्व है। हमें इस बात को गंभीरता और गहराई से समझने की जरूरत है। तभी हमें यह एहसास होगा कि अपने कंधों पर इतनी गहरी जिम्मेदारी उठाए स्त्रियों के प्रति हम कितने संवेदनशील और ईमानदार हैं।

एक समाज के रूप में हम स्त्री से गर्भधारण करने और बच्चे के पालन-पोषण का अधिकार नहीं छीन सकते, लेकिन क्या हम नीतियों को इस तरह नहीं बदल सकते कि उसकी इस जिम्मेदारी में मददगार हो सकें। क्या हम थोड़े और संवेदनशील और दयालु नहीं हो सकते। अपने उस रवैये और सामाजिक ढांचे को नहीं बदल सकते, जो बच्चे को पालने के लिए मिले अवकाश को 'मुफ्त की छुट्टी' और 'मुफ्त की तंख्वाह' कहती है। बता दें कि

लेखिका श्रद्धा पांडेय 2017 बैच की आईपीएस अधिकारी हैं और वर्तमान में गौतम बुद्ध नगर में सहायक पुलिस आयुक्त के पद पर तैनात हैं।

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