यूपी चुनाव 2022: एक बार को छोड़कर दादरी में गुर्जर ही बना विधायक
एक बार को छोड़ दें तो यहां से हर बार गुर्जर विधायक ही चुना गया है। ऐसे में सभी पार्टियां यहां से गुर्जर प्रत्याशी पर ही दांव लगाती है। एक-दो बार कुछ पार्टियों ने दूसरी जाति के प्रत्याशियों को आजमाया लेकिन वह जमानत तक नहीं बचा सके।
ग्रेटर नोएडा [अंकुर त्रिपाठी]। गौतमबुद्ध नगर की दादरी क्षेत्र में एक बार फिर भाजपा, सपा,कांग्रेस,बसपा ने गुर्जर उम्मीदवारों पर दांव लगाया है। दादरी गुर्जर बहुल क्षेत्र है। पौने छह लाख मतदाताओं में से लगभग दो लाख गुर्जर हैं। आजादी के बाद से अब तक एक बार को छोड़ दें तो यहां से हर बार गुर्जर विधायक ही चुना गया है। यही कारण है कि सभी पार्टियां यहां से गुर्जर प्रत्याशी पर ही दांव लगाती है। एक-दो बार कुछ पार्टियों ने दूसरी जाति के प्रत्याशियों को आजमाया, लेकिन वह अपनी जमानत तक नहीं बचा सके।
दादरी सीट पर 1957 में ठाकुर सत्यवती रावल विधायक चुनी गईं थीं। इसके बाद हर विधानसभा चुनाव में गुर्जर प्रत्याशियों के ही सिर पर दादरी की जनता ताज सजाती गई है। यहां भाटी-नागर गोत्र का मुद्दा हर चुनाव में इतना अधिक हावी रहता था कि ज्यादातर दलों को इन्हीं दोनों गोत्रों में से प्रत्याशी का चयन करना पड़ता था। 2007 में बैसोया गोत्र के सतवीर गुर्जर विधायक चुने गए। 2012 से पहले दादरी और नोएडा एक ही विधानसभा हुआ करती थी। नए परिसीमन होने के बाद 2012 में दोनों अलग-अलग सीट बन गई। सत्यवती रावल के बाद स्वतंत्रता सेनानी रामचंद्र विकल कई बार यहां से विधायक चुने गए।
सिकंदराबाद के देवटा गांव के रहने वाले तेज सिंह भाटी तीन बार, बिसरख गांव के रहने वाले विजयपाल भाटी दो बार व मकौड़ा गांव के रहने वाले महेंद्र सिंह भाटी तीन बार इस सीट से विधायक चुने गए। महेंद्र सिंह भाटी क्षेत्र में इतने अधिक लोकप्रिय थे कि 1991 के चुनाव में उन्होंने कांग्रेस, भाजपा समेत सभी दलों के प्रत्याशियों की जमानत जब्त करा दी थी।
महेंद्र सिंह भाटी की हत्या के बाद उनके बेटे समीर भाटी भी दादरी से एक बार विधायक चुने गए। 1996 में इस सीट पर पहली बार भाजपा का कमल खिला। भाजपा के नवाब सिंह नागर दो बार विधायक चुने गए। समाजवादी पार्टी ने 2007 के चुनाव में ठाकुर बिरादरी के अशोक चौहान को टिकट दिया, लेकिन उनका कोई जादू नहीं चल पाया और चौथे स्थान पर उनको संतोष करना पड़ा। इससे पहले परिवर्तन दल से ठाकुर बिरादरी के सुंदर सिंह राणा ने भी अपनी किस्मत आजमाई। वह भी अपनी जमानत नहीं बचा सके। 1974 में बीकेडी के बिशंबर दयाल शर्मा भी चुनाव मैदान में उतरे, लेकिन उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा।