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शुकतीर्थ से रहा भागवत सम्राट डोंगरेजी महाराज का अटूट नाता

संत डोंगरेजी महाराज की पुण्यतिथि पर विशेष। स्वामी कल्याणदेव के निष्काम जीवन से रहे प्रेरित।

By JagranEdited By: Published: Fri, 09 Nov 2018 12:03 AM (IST)Updated: Fri, 09 Nov 2018 12:03 AM (IST)
शुकतीर्थ से रहा भागवत सम्राट डोंगरेजी महाराज का अटूट नाता
शुकतीर्थ से रहा भागवत सम्राट डोंगरेजी महाराज का अटूट नाता

रोहिताश्व कुमार वर्मा, मोरना (मुजफ्फरनगर) : भारत में श्रीमद्भागवत तथा रामचरित मानस के माध्यम से भक्ति-भागीरथी प्रवाहित कर गए संत रामचंद्र केशव डोंगरेजी महाराज ने अपने जीवन की अंतिम कथा शुकतीर्थ में सुनाई थी। महान संत स्वामी कल्याणदेव के त्यागमय जीवन से प्रेरित होकर उन्होंने देश में असंख्य अन्न क्षेत्र, गौशाला व संस्कृत विद्यालय खुलवाए। डोंगरेजी नए मंदिर बनाने की जगह पुराने जीर्ण-क्षीर्ण मंदिरों के उद्धार की भी प्रेरणा देते थे और भागवत सम्राट 9 नवंबर, 1990 को ब्रह्मलीन हो गए थे।

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पौराणिक तीर्थनगरी शुकतीर्थ से भागवत सम्राट डोंगरेजी महाराज का अटूट नाता रहा है। शुकदेव मुनि की तपोभूमि से उनके परिवार का सौभाग्य जुड़ा था। वर्ष 1945 में तीर्थ के जीर्णोद्धार को वीतराग स्वामी कल्याणदेव ने काशी व वृंदावन के भागवताचार्यो से श्रीमद्भागवत का एक वर्ष का अखंड मूल पाठ कराया। उसके बाद कथा व्यास कृष्ण शंकर शास्त्री की शुकदेव आश्रम में हुई कथा में डोंगरेजी के पिता गणेश राव उनकी माता भी आई। वेदाध्ययन के संस्कार उन्हें बचपन से ही मिले। उनकी वाणी में ऐसा आकर्षण था कि कुछ ही दिन में डोंगरेजी की कथा वाचन की ख्याति बढ़ गई। जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद, स्वामी अखंडानंद व स्वामी करपात्री आदि की प्रेरणा से उन्होंने ¨हदी का अभ्यास कर ¨हदी में कथा प्रारंभ की। वर्ष 1958 में जापान की कोटक कंपनी के मालिक बी. कोटक और पत्नी चंद्रभागा ने शुकतीर्थ में डोंगरेजी की पहली कथा रखी थी। वीतराग स्वामी कल्याणदेव के निष्काम सेवाभावी जीवन के प्रति उनकी गहरी श्रद्धा जुड़ गई। आध्यात्मिक एकांत प्रवास में कई बार वह शुकदेव आश्रम में पधारे। संत डोंगरेजी कहते थे कि शुकदेव मुनि की अमरवाणी शुकतीर्थ के कण-कण में समायी है। शुद्ध सात्विक भक्ति-भाव से ओत-प्रोत डोंगरेजी महाराज ने 10 से 18 सितंबर, 1990 को जीवन की अंतिम कथा अपने आराध्य मुनि शुकदेवजी के श्रीचरणों में बैठकर की। उस कथा से जुड़े पूर्व विधायक सुरेश संगल बताते हैं कि शुकतीर्थ में डोंगरेजी की अंतिम श्रीमद्भागवत कथा सुनने को पूरे भारत से श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ा था। उनके जीवन मे अपने इष्टदेव भगवान श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कुछ नहीं था। 9 नवंबर, 1990 को नाडियाद (गुजरात) के संतराम मंदिर में विख्यात कथा व्यास ने देह त्याग किया था। भगवान में एकरूप हो जाते थे संत डोंगरेजी

पीठाधीश्वर स्वामी ओमानंद सरस्वती बताते हैं कि पूज्य डोंगरेजी व्यास पीठ पर विराजमान हो मूर्तिवत भगवान से एकरूप हो जाते थे। कथा से प्राप्त धन सेवा, परोपकार कार्यो में लगाते और बेटियों का सामूहिक विवाह कराते थे। महाप्रयाण से पूर्व उन्होंने श्वेत वस्त्रों का त्याग किया। संन्यास की दीक्षा ली। गुरुदेव से उनकी आत्मीयता अमिट थी।


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