LokSabha Election Result 2019: अति उत्साह में डूबी छोटे चौधरी की नैया, भीड़ को देख मुगालते में रह गए
रालोद में चेहरा चमकाने वाले नेताओं की कमी नहीं थी लेकिन लग्जरी होटल में बनी रणनीति भाजपा के सामने फेल हो गई। भावनात्मक जुमले भी रहे बेअसर रहे।
By Taruna TayalEdited By: Published: Fri, 24 May 2019 06:28 PM (IST)Updated: Fri, 24 May 2019 06:28 PM (IST)
मुुुुजफ्फरनगर, [कपिल कुमार]। गठबंधन प्रत्याशी एवं रालोद प्रमुख चौधरी अजित सिंह राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं, लेकिन इस बार वह भाजपा के युवा नेता डॉ संजीव बालियान के आगे चित हो गए। चुनाव में छोटे चौधरी का आम मतदाता से दूरी बनाए रखना और बूथ मैनेजमेंट में कमजोर साबित होना भी हार की बड़ी वजह बना है। रालोद में चेहरा चमकाने वाले नेताओं की कमी नहीं थी, लेकिन जमीनी स्तर पर उनका मैनेजमेंट नजर नहीं आया। बाहर से कई बड़े नेता उन्हें जिताने के लिए यहां पहुंचे, लेकिन वह लग्जरी होटल में बैठकर रणनीति बनाने तक ही सीमित रहे।
जमीनी प्रबंधन नहीं रहा मजबूत
गठबंधन प्रत्याशी अजित सिंह ने चुनाव जीतने के लिए बड़े स्तर पर भाजपा की घेराबंदी की थी। कांग्रेस ने मुजफ्फरनगर में अपना प्रत्याशी नहीं उतारा। चौधरी अजित सिंह जमीनी स्तर पर चुनाव प्रबंधन मजबूत नहीं कर पाए। वह इस मुगालते में रहे कि मुस्लिम-दलित समीकरण के साथ जाटों के वोट उनकी नैय्या पार लगाने के लिए काफी हैं। चुनाव में यह दिखा भी, जाट बहुल गांवों में रालोद की रैलियों में जबरदस्त भीड़ उमड़ती थी। छोटे चौधरी को जाटों के 70 से 80 फीसदी वोट मिलने की उम्मीद थी। जाटों के बड़े बुजुर्ग तो छोटे चौधरी को चाहते थे, लेकिन घर के ही युवा वोटर संजीव बालियान और पीएम नरेंद्र मोदी के फैन थे। यही वजह रही कि युवाओं ने भाजपा के पक्ष में खुलकर मतदान किया। हालांकि 80 साल की उम्र पार कर चुके चौधरी अजित सिंह भावनात्मक रूप से यह कहकर भी वोट मांगते थे कि यह उनका अंतिम चुनाव है। अगर पूरे मामले पर गौर किया जाए तो चौधरी अजित को उनके ही कारिंदों ने अंधेरे में रखा। चेहरा दिखाने वाले नेताओं का उनके इर्द-गिर्द पूरा मजमा रहता था, लेकिन गांव-बूथ स्तर पर नेता नहीं जाते थे। चुनाव प्रचार के दौरान अधिकतर नेताओं का समय एसी कमरों में रणनीति बनाने में गुजरता था। गठबंधन होने की वजह से बसपा का दलित वोट भी चौधरी साहब के साथ था, लेकिन इस मौसम में बड़ी संख्या में दलित मजदूर ईंट-भट्ठों पर पथाई के लिए निकल जाते हैं, ऐसे वोटरों पर रालोद ने ध्यान नहीं दिया। उन्हें बूथ तक लाने की कोई योजना नहीं बनाई। बड़ी संख्या में दलित अपने वोट नहीं डाल पाए। इसके अलावा रालोद को जाट बहुल बुढ़ाना विधानसभा से 50 हजार वोटों की लीड मिलने की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। बुढ़ाना पर गठबंधन को भाजपा से 16 हजार अधिक वोटों पर ही संतोष करना पड़ा। चौधरी अजित सिंह के चुनाव प्रचार में एक बड़े अपराधी की पत्नी का वोट मांगना भी लोगों को अखरा।
1971 में चौ. चरण सिंह को मिली थी शिकस्त
मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट चौधरी खानदान के लिए मुफीद नहीं है। जनादेश ने 48 साल का इतिहास फिर दोहराया है। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बाद उनके पुत्र रालोद मुखिया चौधरी अजित सिंह को भी हार का सामना करना पड़ा। इस सीट से 1971 में पुश्तैनी सीट बागपत छोड़कर मुजफ्फरनगर से लड़ने आए पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भी हार का सामना करना पड़ा था। उन्हें सीपीआइ के विजयपाल सिंह ने हरा दिया था।
मोदी की रैली ने फूंकी जान
मोदी की मेरठ, सहारनपुर, बिजनौर रैली ने मुजफ्फरनगर के मतदाताओं पर भी प्रभाव छोड़ा। मतदान के दिन कतारबद्ध निकलीं महिलाओं ने जिले में चुनावी तस्वीर पलट कर रख दी। भाजपा प्रत्याशी संजीव बालियान की जीत में अतिपिछड़ों का अटूट वोट भी कामयाबी की इबारत बना है।
जमीनी प्रबंधन नहीं रहा मजबूत
गठबंधन प्रत्याशी अजित सिंह ने चुनाव जीतने के लिए बड़े स्तर पर भाजपा की घेराबंदी की थी। कांग्रेस ने मुजफ्फरनगर में अपना प्रत्याशी नहीं उतारा। चौधरी अजित सिंह जमीनी स्तर पर चुनाव प्रबंधन मजबूत नहीं कर पाए। वह इस मुगालते में रहे कि मुस्लिम-दलित समीकरण के साथ जाटों के वोट उनकी नैय्या पार लगाने के लिए काफी हैं। चुनाव में यह दिखा भी, जाट बहुल गांवों में रालोद की रैलियों में जबरदस्त भीड़ उमड़ती थी। छोटे चौधरी को जाटों के 70 से 80 फीसदी वोट मिलने की उम्मीद थी। जाटों के बड़े बुजुर्ग तो छोटे चौधरी को चाहते थे, लेकिन घर के ही युवा वोटर संजीव बालियान और पीएम नरेंद्र मोदी के फैन थे। यही वजह रही कि युवाओं ने भाजपा के पक्ष में खुलकर मतदान किया। हालांकि 80 साल की उम्र पार कर चुके चौधरी अजित सिंह भावनात्मक रूप से यह कहकर भी वोट मांगते थे कि यह उनका अंतिम चुनाव है। अगर पूरे मामले पर गौर किया जाए तो चौधरी अजित को उनके ही कारिंदों ने अंधेरे में रखा। चेहरा दिखाने वाले नेताओं का उनके इर्द-गिर्द पूरा मजमा रहता था, लेकिन गांव-बूथ स्तर पर नेता नहीं जाते थे। चुनाव प्रचार के दौरान अधिकतर नेताओं का समय एसी कमरों में रणनीति बनाने में गुजरता था। गठबंधन होने की वजह से बसपा का दलित वोट भी चौधरी साहब के साथ था, लेकिन इस मौसम में बड़ी संख्या में दलित मजदूर ईंट-भट्ठों पर पथाई के लिए निकल जाते हैं, ऐसे वोटरों पर रालोद ने ध्यान नहीं दिया। उन्हें बूथ तक लाने की कोई योजना नहीं बनाई। बड़ी संख्या में दलित अपने वोट नहीं डाल पाए। इसके अलावा रालोद को जाट बहुल बुढ़ाना विधानसभा से 50 हजार वोटों की लीड मिलने की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। बुढ़ाना पर गठबंधन को भाजपा से 16 हजार अधिक वोटों पर ही संतोष करना पड़ा। चौधरी अजित सिंह के चुनाव प्रचार में एक बड़े अपराधी की पत्नी का वोट मांगना भी लोगों को अखरा।
1971 में चौ. चरण सिंह को मिली थी शिकस्त
मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट चौधरी खानदान के लिए मुफीद नहीं है। जनादेश ने 48 साल का इतिहास फिर दोहराया है। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बाद उनके पुत्र रालोद मुखिया चौधरी अजित सिंह को भी हार का सामना करना पड़ा। इस सीट से 1971 में पुश्तैनी सीट बागपत छोड़कर मुजफ्फरनगर से लड़ने आए पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भी हार का सामना करना पड़ा था। उन्हें सीपीआइ के विजयपाल सिंह ने हरा दिया था।
मोदी की रैली ने फूंकी जान
मोदी की मेरठ, सहारनपुर, बिजनौर रैली ने मुजफ्फरनगर के मतदाताओं पर भी प्रभाव छोड़ा। मतदान के दिन कतारबद्ध निकलीं महिलाओं ने जिले में चुनावी तस्वीर पलट कर रख दी। भाजपा प्रत्याशी संजीव बालियान की जीत में अतिपिछड़ों का अटूट वोट भी कामयाबी की इबारत बना है।
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