बदलती सोच की बानगी है यह घर वापसी
जेएनएन दिल्ली पहले हरियाणा और अब उत्तर प्रदेश। तीन घटनाएं।
जेएनएन दिल्ली: पहले हरियाणा और अब उत्तर प्रदेश। तीन घटनाएं। घर वापसी की कहानी। भय, लालच, स्वार्थ जैसे कारणों का यहां कोई प्रभाव नहीं। यहा छटपटाहट है, जड़ों की ओर लौटने की। कोरोना के इस संक्रमण काल में स्वत: स्फूर्त उत्पन्न भाव के कारण हो रहीं ये घटनाएं बड़े परिवर्तन का संकेत हैं और इस बात का द्योतक भी कि देश के हजारों ऐसे परिवार जो अपनी जड़ों से कट गए थे, वे फिर जड़ों की ओर वापस लौट रहे हैं। समाजशास्त्री कहते हैं कि घर वापसी का यह सिलसिला आने वाले समय में और तेज हो सकता है।
हरियाणा में जींद के दनौंदा के छह परिवार 20 अप्रैल को तो आठ मई को हिसार के बिठमढ़ा गाव के तीस परिवार सदियों बाद हिंदू धर्म में वापसी कर चुके हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में पिछले दिनों लगभग सात सौ की आबादी वाले गाव सलावा के सभी परिवारों ने भी अपनी मूल पहचान को फिर अपनाने का संकल्प लिया है।
इतिहास के पन्ने पलटें तो सल्तनत और फिर मुगल काल में बहुत से परिवारों को मुस्लिम होने पर मजबूर होना पड़ा। हालाकि, उन्होंने हिंदू परंपराओं को अपनाए रखा, इसलिए कहीं वे हिंदू कहे जाते रहे और कहीं मुस्लिम। हरियाणा में डूम जाति के लोग ऐसे ही हैं, जो डूम भी कहे जाते हैं और मिरासी भी। उत्तर प्रदेश की नट जाति भी ऐसी ही है। बहुत से नट परिवार हिंदू नाम रखते हैं। हिंदू परंपराएं निभाते हैं और खुद को हिंदू मानते हैं। इन जातियों में भले ही बहुत सी बातें हिंदू-मुस्लिम संस्कृति की साझा थीं लेकिन, शवों को दफनाने के कारण समाज उन्हें मुस्लिम ही समझता था। क्या कहते हैं इतिहासकार
रेडिकल परिवर्तन का परिचायक : डॉ. विशेष गुप्ता
मुरादाबाद के समाजशास्त्री डॉ. विशेष गुप्ता का कहना है कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा हर तबका विपरीत हालात और परिस्थिति में विगत से ही खुद को असुरक्षित व असहाय महसूस करता रहा है। यही वजह है कि वैचारिक रूप से वह स्वतंत्र नहीं होता। वह सुरक्षा का भरोसा मिलने पर अपने विचारों की श्रृंखला को उसी ओर मोड़ लेता है। हालात बदलने पर जब कभी वह खुद को सुरक्षित महसूस करता है, तब अपनी जड़ों को टटोलने और उनसे जुड़ने की कोशिश करता है। उत्तर प्रदेश में भी नटों का भी कुछ ऐसा ही हाल है। प्रदेश में बजनिया व बृजवासी नट हैं। बजनिया नट बाजीगरी, कलाबाजी व गायन से अपनी आजीविका चलाते है। सलावा गाव के नटों ने शव दफनाने के बजाय दाह संस्कार का जो निर्णय लिया है, वह उनके भीतर सुरक्षा के भाव भरे होने का अहसास कराता है, जो नट समाज में रेडिकल परिवर्तन का परिचायक है।