आत्मा का साक्षात्कार ही होता है आत्मसंयम
आत्मसंयम को समझने के लिए सर्वप्रथम आत्मा को जानना आवश्यक है।
आत्मसंयम को समझने के लिए सर्वप्रथम आत्मा को जानना आवश्यक है। आत्मा का तात्पर्य स्वयं को जानने से है। यानी, शरीर की इंद्रियां, जिनसे हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसी के आधार पर हम स्वयं को समझते हैं। जब इंद्रियों से प्राप्त किसी प्रकार के ज्ञान से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं, तभी हमें अपनी आत्मा का साक्षात्कार होता है। उस स्थिति में किया गया कार्य या कर्म ही आत्मसंयम कहलाता है।
आत्मसंयम अर्थात मन व इंद्रियों को वश में करना। यदि व्यक्ति का मन उसके अपने वश में होता है तो किसी प्रकार का लोभ, मोह उसे भ्रष्ट नहीं करता। यदि व्यक्ति ने अपने मन पर नियंत्रण कर लिया तो उसका पूरा जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होने लगता है। यदि व्यक्ति अनियंत्रित गति के साथ दौड़ रहे मन के साथ चलता है तो वह अपने जीवन में अनेक कष्ट उठाता है। इसी प्रकार जब विद्यार्थी परीक्षा की तैयारी करते समय अपने मन को स्थिर नहीं रख पाते हैं तो वह असफल हो जाते हैं। यदि पढ़ाई करते समय उन्हें अपने मन व भावनाओं पर नियंत्रण रखना तथा धैर्य के साथ प्रश्नों को अच्छी प्रकार समझ कर उत्तर देने की शिक्षा दी जाए तो निश्चित सफलता मिलती है। इस प्रकार आत्मसंयम का अर्थ धैर्य भी हुआ। धैर्यवान व्यक्ति की शक्ति सकारात्मक कार्यो में व्यय होती है, तभी व्यक्ति का मन पूर्ण रूप से स्थिर व एकाग्र होता है।
आत्मसंयम श्रेष्ठ पुरुष का प्रथम लक्षण है। बिना आत्मसंयम के मनुष्य अपने लक्ष्य की ऊंचाई पर कभी नहीं पहुंच सकता। संसार का कोई भी नियम बिना आत्मसंयम के संभव नहीं है। कठिनाई के समय ही तो आत्मसंयम की परीक्षा होती है। आत्मसंयम के लिए हमें निरंतर प्रयत्न करना चाहिए। निश्चित रूप से मन को वश में करना बहुत कठिन कार्य है। मन की चचंल गति विवेकी पुरुष को भी अपने साथ बहा ले जाती है। अत: आत्मसंयम अति आवश्यक है। क्योंकि, जिस व्यक्ति का मन शांत है और इंद्रियां वश में हैं, वही परम तत्व को प्राप्त करता है।
- मीनाक्षी मोहन, प्रधानाचार्य, फूलवती कन्या इंटर कॉलेज