जिदगी के चौराहे पर उम्मीदें टटोल रहे प्रवासी मजदूर
कोरोना काल में कर्मभूमि से बिछड़ने का मलाल प्रवासी मजदूरों के चेहरे पर।
मुरादाबाद, जेएनएन: कोरोना काल में कर्मभूमि से बिछड़ने का मलाल प्रवासी मजदूरों के चेहरे पर दिख रहा है। शून्य में घूरती आंखें इसलिए सुर्ख में हैं क्योंकि उन्हें न सिर्फ अपनी बल्कि परिजनों की परवरिश करने की चिता है। जिदगी के चौराहे पर खड़े होने के बाद भी वह असमंजस में हैं। आगे बढ़ने की राहें तो दिख रहीं हैं, लेकिन जाएं किधर, यह समझ नहीं आ रहा।
छजलैट ब्लाक के ग्राम गोपालपुर नत्था उर्फ कोकरपुर के प्रधान गजेंद्र सिंह बताते हैं कि लाकडाउन अवधि में कुल 53 प्रवासी मजदूर घर लौटे हैं। इनमें से अधिकांश दक्षिण भारत के राज्यों में काम करते थे। दो हजार किमी से भी ज्यादा दूर रहकर वह अपने साथ परिजनों का भी पेट पालते थे। लाकडाउन में वापस अपनों के बीच लौटे तो भविष्य को लेकर मन बेचैन है। अधिकांश मजदूर 20-35 वर्ष आयु वर्ग के हैं। सभी पर परिवार की बड़ी जिम्मेदारी है। श्रमिकों की शक्ति ही उनके जीवनयापन का एक मात्र सहारा है। यह हाथ रोजगार के अभाव में इस वक्त खाली हैं।
किसको सुनाएं अपना दर्द
मुहम्मद शोएब मंगलौर में बारबर का काम करता था। 26 मई को वह अपने गांव गोपालपुर लौटा। शोएब सात भाई-बहन हैं। ड्राइवर पिता की कमाई से घर का खर्च चलाना मुश्किल था तो वह पांच वर्ष पहले शोएब मंगलौर चला गया। वहां से रुपये भेजने पर घर में भाई-बहन की पढ़ाई और परिवार के खर्च में सहूलियत होती थी। करोना काल में काम छूटा पर जिम्मेदारी जस की तस है। कुछ ऐसी ही दास्तान शेरखान, शैफ अली व फुरकान समेत सभी मजदूरों के मन में एक ही सवाल कि आखिर अब क्या किया जाए।
अशिक्षा बड़ा रोड़ा
आगे बढ़ने की राह तलाश रहे मजदूरों की राह का सबसे बड़ा रोड़ा अशिक्षा है। 53 प्रवासी मजदूरों में महज तीन हाईस्कूल पास हैं। दो इंटरमीडिएट तक पढ़े हैं। शेष आठवीं भी नहीं पास कर पाए हैं। अशिक्षित होने की कसक और मलाल उनके चेहरे पर चस्पा है।