मुहर्रम में यहां दिखती है सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल, ब्राह्मण मनाते हैं कर्बला के शहीदों का मातम Amroha news
दावा किया जाता है कि नौगावां सादात के अलावा देश के किसी अन्य शहर में गैरमुस्लिम मुहर्रम के दौरान मातम नहीं मनाते।
आसिफ अली, अमरोहा। मुहर्रम के महीने में अमरोहा जनपद के नौगावां सादात में सांप्रदायिक सौहार्द की अनूठी मिसाल देखने को मिलती है। यहां हर साल शिया समुदाय के साथ आजमगढ़ से आने वाले ब्राह्मण समाज के लोग कर्बला के शहीदों की याद में मातम करते हैं। दावा किया जाता है कि नौगावां सादात के अलावा देश के किसी अन्य शहर में गैरमुस्लिम मुहर्रम के दौरान मातम नहीं मनाते। आजमगढ़ से आने वाले जत्थे को हुसैनी ब्राह्मण कहा जाता है। यह लोग 25 साल से यहां आकर कर्बला के शहीदों के गम में शिरकत करते हैं।
एक सितंबर से मुहर्रम का महीना शुरू हो चुका है। देश-विदेश से लोग मुहर्रम के दौरान अमरोहा व नौगावां सादात पहुंच चुके हैं। 24 मुहर्रम की रात को नौगावां सादात की अंजुमन-ए-जाफरिया भी शब्बेदारी (रात का मातम) कराती है। इस शब्बेदारी में सिर्फ मुस्लिम समुदाय के लोग ही शिरकत नहीं करते, बल्कि आजमगढ़ के ब्राह्मण समाज के लोग भी आकर हुसैनी गम में शामिल होते हैं। हर साल आजमगढ़ के 60 लोगों का जत्था दो दिन के लिए नौगावां सादात आता है और मातम की सभी रस्में करता है। अंजुमन-ए-जाफरिया के सदर नूर अब्बास राणा बताते हैं कि हुसैनी ब्राह्मणों के नाम से प्रसिद्ध यह जत्था 25 साल से आ रहा है। उन्होंने बताया कि 24 मुहर्रम की रात को देशभर की अंजुमने कस्बे में आती हैं। शिया जामा मस्जिद में मजलिस के बाद नोहा और मर्सिया ख्वानी भी करते हैं। उसके बाद मातम किया जाता है। रातभर हुसैनी गम में शरीक होने के बाद कर्बला पहुंचते हैं। सांप्रदायिक सौहार्द की ऐसी मिसाल देश के किसी अन्य शहर में देखने को नहीं मिलती।
अंजुमन के बुलावे पर आते हैं नौगावां सादात
अंजुमने जाफरिया के सदर नूर अब्बास राणा बताते हैं कि आजमगढ़ के हुसैनी ब्राह्मणों द्वारा मातम मनाए जाने के पीछे कर्बला से जुड़ा हुआ एक तर्क है। बताते हैं कि जब कर्बला के मैदान में दुश्मनों की फौज ने हजरत इमाम हुसैन को घेर लिया था तो उस वक्त उन्होंने ङ्क्षहदुस्तान जाने की इच्छा जताई थी। बाद में हजरत इमाम हुसैन की शहादत की जानकारी जब ङ्क्षहदुस्तान के लोगों को हुई तो गैर मुस्लिम लोगों ने भी दुख जताया था। बताते हैं कि उसी समय से यहां गैर मुस्लिम भी उनका गम मनाते हैं। आजमगढ़ से आने वाले ब्राह्मण समाज के लोगों के मुताबिक उनके पुरखे मुहर्रम के दौरान मातम करते थे। उसी परंपरा को आज तक निभा रहे हैं।