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1966 तक मीरजापुर के जंगलों में गूंजती रही शेरों की दहाड़

एक जमाना था जब मध्य प्रदेश के साथ उत्तर प्रदेश के मीरजापुर का जंगल शेरों की दहाड़ों से गूंज उठता था। उनके दहाड़ते ही जानवर से लेकर इंसानों तक में सन्नाटा पसर जाता था। सभी समझ जाते थे कि आज जंगल के राजा का किसी न किसी पर हमला जरुरत होगा।

By JagranEdited By: Published: Thu, 19 Dec 2019 08:34 PM (IST)Updated: Fri, 20 Dec 2019 06:05 AM (IST)
1966 तक मीरजापुर के जंगलों में गूंजती रही शेरों की दहाड़
1966 तक मीरजापुर के जंगलों में गूंजती रही शेरों की दहाड़

प्रशांत यादव, मीरजापुर : एक जमाना था जब मध्य प्रदेश के साथ उत्तर प्रदेश के मीरजापुर का जंगल शेरों की दहाड़ों से गूंज उठता था। उनके दहाड़ते ही जानवर से लेकर इंसानों तक में सन्नाटा पसर जाता था। सभी समझ जाते थे कि आज जंगल के राजा का किसी न किसी पर हमला जरुरत होगा। लेकिन धीरे धीरे शिकार करने का दौर बढ़ा और शेर समेत अन्य जानवर मारे जाने लगे। तीर कमान के बाद गोलियों और बम की आवाज से जानवरों में खौफ पैदा किया जाने लगा। इससे डरकर वह धीरे धीरे मीरजापुर और सोनभद्र के जंगलों को छोड़कर मध्य प्रदेश की ओर रूख कर दिए। आखिर बार 1966 में सोनभद्र के मंगेश्वर पहाड़ी पर शेरों के झुंड को देखा गया था जो कुछ दिनों तक वहां रहने के बाद गायब हो गए। इसके बाद आजतक इन जंगलों में शेर नहीं दिखाई दिए।

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कभी मीरजापुर जनपद का जंगल जानवरों की भरमार के लिए जाना जाता था। यहां के जंगलों में शेर, चीते, हाथी, भालू, काले हिरन, भैसा, जंगली शुरूर, समेत अन्य जानवरों के लिए प्रसिद्ध हो गया। चुनार और नौगढ़ किला के राजा द्वारा शिकार तो खेला जाता था। दिल्ली, मुंबई तथा राजस्थान समेत अन्य क्षेत्र से मीरजापुर के जंगल मड़िहान, हलिया, वर्तमान में सोनभद्र के मंगेश्वर, सुकृत समेत अन्य स्थानों पर शिकार खेलने के लिए यहां आने लगे। कई कई दिन तक यहां पर डेरा डालकर राजा महाराजा शिकार खेला करते थे। राजा महाराजा का दौर समाप्त होने के बाद अंग्रेजों द्वारा भी जमकर भारतीय शेरों का शिकार किया गया। 1947 में अंग्रेजों के भारत से चले जाने के बाद नेताओं एवं अधिकारियों द्वारा शिकार करने का दौर शुरू हुआ। पहले लोग तीर कमान से शिकार किया करते थे लेकिन अंग्रेजी हुकूमत आने के बाद असलहों से शिकार किए जाने लगा। बम से भी जानवरों को मारा जाता था। अत्यधिक हो रहे शिकार एवं आवाज के चलते जंगल के जानवरों अपने-आपको को असुरक्षित महसूस करने लगे और 1953 में मीरजापुर के जंगल के छोड़कर सोनभद्र के घने जंगलों में जाकर रहने लगे। 1966 में आखिर सोनभद्र के मंगेश्वर पहाड़ी पर कई बार शेरों, हाथियों, चिता, तेंदुआ आदि बड़े जानवरे जानवर को देखा गया था। इसके बाद वह कहां चले गए इसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं चला। आशंका जताई जा रही है कि अधिकांश जानवर यूपी की सीमा पार करते हुए मध्य प्रदेश के जंगलों में चले गए। इनसेट

जानवरों के संरक्षण के लिए गठित किया गया कैमूर वन्य जीव संरक्षण

भारत के जंगलों में जितने जानवर पाए जाने थे उसमें 50 प्रतिशत विभिन्न प्रजाति के जानवर मध्य प्रदेश और यूपी के जंगलों में पाया जाता था। इसको देखते हुए 1980 में कैमूर वन्य जीव संरक्षण अधिनियम का गठन किया गया। जिसमें मीरजापुर और सोनभद्र के चार क्षेत्र हलिया, घोरावल, रावटर्सगंज व गुर्मा को मिलाकर कैमूर वन्य जीव क्षेत्र बनाया गया। जिससे जानवरों का संरक्षण कर उनको बचाया जा सके। -----

बड़े जानवर समाप्त होने के कारण शेरों के जाने का एक मुख्य कारण

मीरजापुर और सोनभद्र के जंगलों से शेरों का पलायन करने का एक मुख्य कारण जंगलों से बड़े जानवरों का समाप्त होना भी माना जाता है। बताया जाता है पूर्व में मीरजापुर और सोनभद्र के जंगलों में भैंसा, हाथी, जंगली सूअर, आदि जानवरों की भरमार थी। जिनका शिकार कर शेर अपना पेट भर लेते थे। क्योंकि छोटे जानवर हिरन समेत अन्य का शिकार करने से उनका पेट नहीं भरता है। बड़े जानवरों में मांस की मात्रा अधिक होती है जिनको मारने से 30 से 40 किलो मांस उनको एक ही जानवर में मिल जाता है। जो उनके लिए भरपूर होता है। इसलिए इनको बड़े जानवर जैसे भैंसा, हाथी, जेबरा, घोड़ा, ऊंट आदि की जरुरत होती है। जो 1964 में मीरजापुर और सोनभद्र जंगली भैंसा, हाथी आदि बड़े जानवर समाप्त हो गए थे। जिससे शेरों का पेट नहीं भर रहा था और वे धीरे धीरे यहां से गायब होने लगे। वर्जन

कैमूर वन्य जीव संरक्षण क्षेत्र जानवरों के लिए सबसे सेफ माना जाता था। इसी को देखते हुए इसका गठन किया गया। लेकिन इससे पहले इतना शिकार किया जाने लगा कि इस क्षेत्र से शेर समेत अन्य जानवर धीरे धीरे दूसरे जंगलों की ओर रूख कर गए।

- आशुतोष जायसवाल, प्रभागीय वनाधिकारी कैमूर वन्य जीव


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