दुआ मांगी थी आशियाने की, चल पड़ी आंधियां जमाने की
नागरिक बहुत दिनों से सोच रहा था कि क्यों न शहर से बाहर निकलकर विकास की बयार की थाह ली जाए। यही सोचकर नागरिक सुबह-सुबह निकल गया और ग्रामीण क्षेत्र में भ्रमण करने लगा। नागरिक जा रहा था और सोच रहा था कि देखें जिले में कहां कितना विकास हुआ है। वह पहुंचा मझवां ब्लाक के एक ग्राम पंचायत में जहां मिट़्टी के घरौंदों पर खपरैल को ठीक करते कुछ लोग नजर आए। नागरिक को आश्चर्य हुआ कि साहब लोग तो पक्का आवास दे रहे हैं और रोज आंकड़े छपते हैं कि इतने हजार आवास बना दिए गए लेकिन यहां तो नजारा दूसरा है।
नागरिक बहुत दिनों से सोच रहा था कि क्यों न शहर से बाहर निकलकर विकास की बयार की थाह ली जाए। यही सोचकर नागरिक सुबह-सुबह निकल गया और ग्रामीण क्षेत्र में भ्रमण करने लगा। नागरिक जा रहा था और सोच रहा था कि देखें जिले में कहां कितना विकास हुआ है। वह पहुंचा मझवां ब्लाक के एक ग्राम पंचायत में जहां मिट़्टी के घरौंदों पर खपरैल को ठीक करते कुछ लोग नजर आए। नागरिक को आश्चर्य हुआ कि साहब लोग तो पक्का आवास दे रहे हैं और रोज आंकड़े छपते हैं कि इतने हजार आवास बना दिए गए, लेकिन यहां तो नजारा दूसरा है।
नागरिक से रहा नहीं गया तो उसने श्रमिकों से पूछा कि क्या कर रहे हो भाई। उसमें से एक ने कहा कि दिख नहीं रहा खपड़ा ठीक कर रहे हैं, ताकि बारिश में पानी के संग घर न टपक जाए। नागरिक ने फिर दुहराया कि सरकारी आवास नहीं मिला क्या? इतने पर एक बुजुर्ग आदमी जो उधर से जा रहा था रुका और नागरिक के सवाल का जवाब देने लगा। उसने कहा कि कहां का आवास भाई साहब, यहां तो खपरैल ही हमारी छत है, मिट्टी की दीवारें ही हमारा महल है। बुजुर्ग की उस बात पर नागरिक उदास होकर बोला, क्यों चचा आवास तो सभी कच्चे मकान वालों को मिल रहा है फिर आपको क्यों नहीं मिला। अब बारी बुजुर्ग की थी और वह गुस्से व तैश में बोला, यह सब बकवास है। सरकारी आवास मिले या न मिले लेकिन इसकी आस में प्रधानों की हवेलियां जरूर तन जा रही हैं। बुजुर्ग बोलता गया, हर गांव का प्रधान घर आता है और कहता है कि चच्चा तुम्हारा कच्चा मकान बना देंगे पक्का। लेकिन बदले में आपको 20 हजार देने होंगे। प्रधान इसका उपाय भी बताता है कि जब सरकारी पैसा खाते में आ जाए तब पहला चढ़ावा चढ़ा देना। लेकिन इसे पास कराने के लिए मुंह दिखाई यानि आवास मिलने की बात पक्की करने के लिए पांच हजार रुपये देने होंगे। बुजुर्ग ने कहा कि एक-एक गांव से 50-100 लोगों को आवास की आस दिखाकर प्रधान जी लोग लाखों रुपये वसूल चुके हैं, अपनी हवेलियां बनवा रहे हैं। इधर हम गरीब अभी भी आवास की आस में टकटकी लगाए बैठे हैं। नागरिक को समझते देर नहीं लगी कि आवास में भी बड़ा खेल हो रहा है। नागरिक ने बुजुर्ग से कुछ कहना चाहा लेकिन गुस्साए वृद्ध व्यक्ति ने बीच में ही टोकते हुए कहा कि अधिकारी व सर्वे वाले आते हैं तो गांव में दौरा नहीं करते। वे प्रधान के घर पर बैठकर गरीबों की छत ढलाई कर देते हैं। चाय पकौड़े का आनंद लेते हुए वे आवासों की सूची फाइनल कर देते हैं। बुजुर्ग आगे बोला कि और आप तो जानते हैं कि जिस देश में एक अधिकारी का साइन कराने के लिए बाबू 100 रुपये ले लेता है, यहां तो करीब डेढ़ लाख की मदद मिल रही है, जिसमें बिना हिस्सा लिए कोई मकान बन जाए, यह हो ही नहीं सकता। नागरिक यह सब सुनकर अकबका सा गया और चलने को आतुर हो गया। तभी कसमसाहट देख खपरैल ठीक कर रहा श्रमिक बोला-
दुआ मांगी थी आशियाने की चल पड़ी आंधियां जमाने की
अपना दर्द समझ न पाया कोई, क्योंकि आदत है मुस्कुराने की।
-नागरिक