World Poetry Day: आइए रू-ब-रू होते हैं मेरठ की इन विभूतियाेें की कालजयी रचनाओं से, ये है उनके सजृन की कहानी
विश्व कविता दिवस अपनी कालजयी रचनाओं से देश-दुनिया में छायीं मेरठ की विभूतियां। आइए 21 मार्च को विश्व कविता दिवस पर मेरठ की कुछ विभूतियों की कालजयी रचनाओं से रू-ब-रू होते हैं।
मेरठ, [विवेक राव]। ये नए मिजाज का शहर है, जरा फासले से मिला करो..कहकर मेरठ के बशीर बद्र ने दुनियाभर में एक नई बहस शुरू की तो इसी माटी से उपजे भारत भूषण ने राम की जलसमाधि लिखकर सरयू तट के उस प्रसंग को शब्दों में ऐसा पिरोया कि वह कविता कालजयी हो गई। मंचों को सुशोभित कर रहे वीर रस के कवि डा. हरिओम पवार का मैं संविधान हूं, लाल किले से बोल रहा हूं.. आज भी श्रोताओं की पहली पसंद होता है तो वहीं पॉपुलर मेरठी के गुदगुदाते मिसरे और व्यंग्य चेहरों की थकान मिटा, गजब की स्फूर्ति भर देते हैं। कोई शक नहीं कि ये रचनाकार और इनकी रचनाएं अलहदा हैं। आइए 21 मार्च को विश्व कविता दिवस पर मेरठ की इन विभूतियों की कालजयी रचनाओं से रू-ब-रू होते हैं और उसके सृजन से छा जाने की कहानी सुनते हैं।
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो..बशीर बद्र
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो।
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए।
मेरठ आने से करीब 30 साल पहले बशीर बद्र यह शेर कह चुके थे। मेरठ को बशीर बद्र का शहर भी कहते हैं। बशीर 70 के दशक में मेरठ कॉलेज के उर्दू विभाग में बतौर प्रोफेसर आए थे। उनकी गिनती दुनिया के नामचीन शायरों में थी। उनकी उर्दू की कक्षा में विज्ञान, विधि, इतिहास, राजनीति विज्ञान आदि के विद्यार्थी भी इस उम्मीद से जाते थे, कि बशीर साहब की शायरी सुनने को मिलेगी। मेरठ में दंगे के दौरान उन्होंने लिखा कि-
-लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में।
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।
-बशीर बद्र एक और शेर लिखा है जो दुनियाभर के कवि प्रेमियों के जुबान पर आज भी है। कविता कुछ यूं रही कि-
यूं ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो।
वो गजल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो।
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से।
ये नए मिजाज का शहर है, जरा फासले से मिला करो।
ये अलग बात मेरी जेब से पत्थर निकले..पॉपुलर मेरठी
पॉपुलर मेरठी अपने अंदाज और आवाज के लिए जाने जाते हैं। मंच पर सपाट और हंसाने वाले कवि हैं। उनका फन अपने आप में अलग है। देश के हर मंच से लेकर दुनिया के मंच पर मुशायरे में महफिल लूटते हैं। उनकी हर गजल एक संदेश देते हुए लोगों को गुदगुदाती भी है। बकौल पापुलर मेरठी 1977 की बात है। आपातकाल लगा था। कांग्रेस से एमएलए जीतकर आए मंजूर अहमद ने इंडो पाक मुशायरा कराने को कहा था। पाकिस्तान के कवियों के साथ उसमें मेरठ के कवि भी थे। उस समय की लिखी कविता खूब पसंद किया गया था। यह कविता कुछ यूं है कि -
घर से जैसे ही मियां जानिबे दफ्तर निकले, एक परिंदे की तरह बीवी के 100 पर निकले। मैं यह कहता ही रहा मैं तो नहीं दीवाना, ये अलग बात मेरी जेब से पत्थर निकले।
पॉपुलर वो तो बहुत हल्के समझते थे मुङो, सैकड़ों गम के मेरे सीने में गट्ठर निकले।
मैं भारत का संविधान हूं..हरिओम पंवार
मैं भारत का संविधान हूं, लाल किले से बोल रहा हूं..डा. हरिओम पंवार की बहुत मशहूर कविता है। मेरठ कॉलेज में जब एलएलबी में संविधान पढ़ाते थे, तो संविधान की उस पीड़ा को महसूस किया। बकौल डा. पंवार मैं भारत का संविधान हूं, मैंने संविधान के उस एहसास को बताया कि अगर संविधान खुद क्या महसूस करता है। जिसके अंदर हर देश की अच्छी चीजें हैं, लेकिन धरातल पर नहीं दिखता। वर्ष 2006 में लिखी यह कविता आज भी सुनकर युवाओं के मन में जोश आ जाता है। आज देश के हर मंच से लेकर दुनिया में जहां भी ¨हंदी की कविताएं सुनने वाले लोग हैं, भारत के संविधान को सुनते हैं। कविता की कुछ पंक्तियां हैं--
मैं भारत का संविधान हूं, लालकिले से बोल रहा हूं
मेरा अंतर्मन घायल है, दु:ख की गांठें खोल रहा हूं।।
मैं शक्ति का अमर गर्व हूं
आजादी का विजय पर्व हूं
पहले राष्ट्रपति का गुण हूं
बाबा भीमराव का मन हूं
मैं बलिदानों का चंदन हूं
कर्तव्यों का अभिनंदन हूंलोकतंत्र का उद्बोधन हूं...
राम की जल समाधि..भारत भूषण
एक वह भी जमाना था, जब मेरठ के गीतकार भारत भूषण पूरे देश के हिंदी कवि सम्मेलन के मंचों पर सुने जाते थे। हरिवंश राय बच्चन, गोपालदास नीरज आदि जैसे कवि भी उन्हें ध्यान से सुना करते थे। दिसंबर 2011 में कवि भारत भूषण दुनिया से विदा हो गए। उनकी तमाम रचनाओं में राम की जल समाधि बहुचर्चित कविता है, जिसमें राम का वर्णन जैसे उन्होंने किया है, दूसरा कवि नहीं कर पाया। इस कविता की पंक्तियां जब मंच पर कंठ से उतरतीं थीं, तो श्रोताओं के आंखों से अश्रुधारा बहती थी। कविता की इन पंक्तियों को उन्होंने सरयू के तट पर बैठकर लिखा। उसके हर शब्द झंकृत कर देते हैं।--
पश्चिम में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से,
हारा-हारा, रीता-रीता, निशब्द धरा, निशब्द व्योम,
निशब्द अधर पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता।
किसलिए रहे अब ये शरीर, ये अनाथमन किस लिए रहे,
धरती को मैं किस लिए सहूँ, धरती मुझको किस लिए सहे।