Lok Sabha Election 2019: पश्चिम के चुनावी रण में क्यों पिछड़ता जा रहा विपक्ष
मुजफ्फरनगर दंगों के बाद अपना आधार लगभग गंवा चुके चौधरी अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) इस चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन का हिस्सा है।
By Taruna TayalEdited By: Published: Wed, 03 Apr 2019 04:25 PM (IST)Updated: Wed, 03 Apr 2019 04:25 PM (IST)
मेरठ, [सुशील कुमार मिश्र]। लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के लिए कुल जमा हफ्तेभर का समय बचा है। सियासी रूप से अहम माने जा रहे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खांटी इलाकों में भी इसी चरण में वोटिंग है। यह क्षेत्र मीडिया के लिए हॉटस्पॉट तो है ही राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोग भी इस बार यहां की सियासी हवा का रुख भांपना चाहते हैं। क्योंकि मुजफ्फरनगर दंगों के बाद अपना आधार लगभग गंवा चुके चौधरी अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) इस चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन का हिस्सा है। कांग्रेस ने भी कुछ सीटों पर मजबूत प्रत्याशी देकर यह जताने की कोशिश की है कि वह भी चुनाव के प्रति गंभीर है। सवाल यह है कि क्या यह गंभीरता जमीन पर भी दिखाई दे रही है? सवाल इसलिए भी लाजिमी है, क्योंकि अभी तक विपक्ष के किसी बड़े नेता ने दौरा तक नहीं किया। जबकि, भाजपा का शीर्ष नेतृत्व पूरी गंभीरता के साथ तैयारियों में जुटा है।
सामाजिक समीकरण गड़बड़ाए
मुजफ्फरनगर दंगा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासत का अहम पड़ाव है। इसने न सिर्फ सामाजिक समीकरण गड़बड़ाए बल्कि राजनीतिक समीकरणों को भी पूरी तरह से पलट कर रख दिया था। गुजरात के बाद दक्षिणपंथी राजनीति ने इस इलाके को अपनी प्रयोगशाला बनाया। उनकी इस सियासी चाल ने रंग भी दिखाया। 2014 के लोकसभा चुनाव में उप्र में भाजपा को अगर प्रचंड जीत मिली तो उसमें पश्चिम की इस धरती से उठी सियासी हवा का भी अहम योगदान रहा। उस हवा में जाट और मुस्लिम गठजोड़ के बल पर सियासी तोलमोल करने वाले चौधरी अजित सिंह तक अपने गढ़ बागपत में न सिर्फ ढेर हुए बल्कि तीसरे स्थान पर खिसक गए थे। यही समीकरण 2017 के विधानसभा चुनाव में भी बने। भाजपा ने प्रदेश में भी भारी बहुमत हासिल किया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सियासी ताकत माने जाने वाले रालोद को सिर्फ एक सीट पर, छपरौली में जीत मिली। वह भी किसी तरह से।
हार के बाद एक तो हुए, पर...
विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद ही मुख्य विपक्षी दलों सपा-बसपा को महसूस हुआ कि भगवा दुर्ग में तब्दील हो रहे उत्तर प्रदेश की लड़ाई को अब अकेले लडऩा आसान नहीं है। अपनी जमीन बचाने के लिए रालोद मुखिया चौधरी अजित सिंह और उनके वारिस जयंत भी सक्रिय हुए। बागपत, मुजफ्फरनगर, शामली, बिजनौर और सहारनपुर में लगातार कैंप किया। अपनों को समझाने की कोशिश भी हुई कि अगर ऐसे ही बिखरे रहे तो सत्ता के शीर्ष पर आपकी आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह हो जाएगी। इस विपक्षी एका की कोशिश को बल दिया कैराना उपचुनाव ने। रालोद के सिंबल पर लड़ीं तबस्सुम हसन ने हुकुम सिंह के निधन के बाद सहानुभूति के रथ पर सवार उनकी बेटी मृगांका सिंह को मात दे दी। खास बात यह रही कि पूरे उपचुनाव के दौरान न तो सपा मुखिया अखिलेश यादव आए और न ही बसपा प्रमुख मायावती। पूरी कमान जयंत के हाथ में रही। तब राजनीतिक विश्लेषकों ने माना था कि जाटों और मुस्लिमों के बीच जमी मोटी बर्फ पिघलनी शुरू हो गई है। तो क्या यह मान लिया जाए कि रालोद ने अपने पुराने समीकरण को फिर से बैलेंस कर लिया है? इस सवाल का जवाब मिलेगा, जरा नतीजे आ जाने दीजिए।
'साथी' आपका इरादा क्या है
अब चर्चा गठबंधन के प्रमुख दल सपा और बसपा की कर लेते हैं। दोनों दलों के योद्धा मैदान में उतर चुके हैं। समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह साइकिल का पहला वर्ण और बहुजन समाज पार्टी के निशान हाथी का अंतिम वर्ण लेकर आपसी रिश्तों को प्रगाढ़ करने वाले शब्द 'साथीÓ का इजाद भी कर लिया गया है। अंदरखाने और भी गतिविधियां चल ही रही होंगी, लेकिन क्या बिना नायक के मैदान में उतरे सियासी युद्ध जीता जा सकता है? हकीकत यही है कि अभी तक जमीन पर बड़े नेताओं की सक्रियता नजर नहीं आई है। हालांकि चौधरी अजित सिंह की मुजफ्फरनगर और जयंत की बागपत में चल रहीं चुनावी गतिविधियों को इससे अलग रखना पड़ेगा। क्योंकि दोनों ही उम्मीदवार हैं। तो क्या मान लिया जाए कि गठबंधन ही सपा-बसपा की जीत का फार्मूला है? इसीलिए दोनों दलों के मुखिया निश्चिंत हो गए हैं? इस निश्चिंतता की एक वजह यह भी हो सकती है कि अब तक सारे चुनावी विश्लेषण जातियों पर ही आधारित रहे हैं। कागजों में निश्चित तौर पर गठबंधन का जातीय गणित मजबूत है। पर जिस देश में वोट देने के मानकों में यह भी शामिल हो कि कौन नेता, कितनी बार हमारे सुख-दुख में शामिल हुआ है, क्या वहां भी पाई चार्ट और स्टेटिक्स के सहारे मुतमईन हुआ जा सकता है?
ध्रुवीकरण हुआ तो जाति कहां टिकेगी
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रो. संजीव शर्मा कहते हैं कि चुनावी राजनीति किसी एक फार्मूेले पर आधारित नहीं हो सकती। जाति का फैक्टर बड़ा है। इसे आप नकार नहीं सकते लेकिन, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर धार्मिक ध्रुवीकरण हुआ तो जाति कहां टिक पाएगी। शाकंभरी देवी से चुनाव अभियान का आरंभ करके भाजपा यह संदेश दे भी चुकी है। यह भी तय है कि गठबंधन की देवबंद में होने वाली सभा के बाद भी भाजपा इसे मुद्दा बनाने जा रही है। इन सबके बावजूद जनता यह देखती है कि उसके संघर्षों का साथी कौन है? विपक्ष चुनाव दर चुनाव हार का सामना कर रहा है। फिर भी जमीन पर कहीं संघर्ष करते हुए नहीं दिखा। जहां तक आंकड़ों की बात है तो क्या 2014 के नतीजों को झुठला देंगे? मेरठ और मुजफ्फरनगर जैसी सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों को जितने वोट मिल गए थे, सपा और बसपा प्रत्याशियों को उतने मिलाकर भी नहीं मिले थे।
बढ़त बना चुकी है भाजपा
सपा मुखिया अखिलेश यादव और बसपा प्रमुख मायावती की पहली रैली सात अप्रैल को देवबंद में होगी। इसके अगले दिन मेरठ में। अन्य नेताओं की कोई सभा कहीं होगी कि नहीं फिलहाल तक कोई जानकारी सामने नहीं आई है। भाजपा की तरफ से चुनाव अभियान की शुरुआत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ शक्तिपीठ शाकंभरी माता के दरबार से कर चुके हैं। प्रधानमंत्री खुद मेरठ में रैली कर चुके हैं। कैराना में उनकी सभा का कार्यक्रम आ चुका है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लगातार पश्चिमी उप्र को मथ रहे हैं। प्रदेश सरकार के तमाम मंत्री दौरे पर हैं ही। इससे उनकी गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह अलग बात है कि मेरठ हापुड़ संसदीय क्षेत्र से गठबंधन प्रत्याशी हाजी याकूब इसे भाजपा का डर बताते हैं। उनका कहना है कि हमारे शीर्ष नेतृत्व ने अपने हिसाब से रणनीति बनाई है। भाजपा नेताओं को हार का डर सता रहा है इसीलिए इतनी रैलियां और सभाएं कर रहे हैं।
क्या चाहती है कांग्रेस
सहारनपुर, कैराना और बिजनौर में दमदार प्रत्याशी देकर कांग्रेस ने इरादे तो जताए थे, पर बड़े नेताओं ने जिस तरह से दूरियां बनाई हैं, उससे लगता है कि यह पार्टी दो कदम आगे बढ़कर चार कदम पीछे लौट चुकी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को जब पश्चिमी उप्र की कमान सौंपी गई थी, उस वक्त लगा था कि कांग्रेस गंभीर हो रही है। कुछ दिनों में उसकी इस गंभीरता की हवा निकल गई। चुनावी तैयारियों के सिलसिले में अब तक एक बार भी ज्योतिरादित्य नहीं आए हैं। शामली में पुलवामा के शहीदों के यहां राहुल और प्रियंका के साथ वह जरूर आए थे। इसी तरह भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर से अस्पताल में मिलने भी प्रियंका वाड्रा के साथ आ चुके हैं। चूंकि इन दोनों दौरों को कांग्रेस की तरफ से ही कहा जा चुका है कि सियायी मायने न निकाले जाएं, तो फिर उस चश्मे से क्यों देखा जाए। मेरठ में ज्योतिरादित्य सिंधिया का सात अप्रैल को रोड शो है। राहुल और प्रियंका के आठ अप्रैल को सहारनपुर के दौरे के बारे में अभी तक सिर्फ कयास ही हैं। सांगठनिक रूप से सूख चुकी कांग्रेस में ऐन मतदान से पहले की यह सक्रियता कितनी जान फूंक पाएगी, कुछ कहा नहीं जा सकता?
सामाजिक समीकरण गड़बड़ाए
मुजफ्फरनगर दंगा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासत का अहम पड़ाव है। इसने न सिर्फ सामाजिक समीकरण गड़बड़ाए बल्कि राजनीतिक समीकरणों को भी पूरी तरह से पलट कर रख दिया था। गुजरात के बाद दक्षिणपंथी राजनीति ने इस इलाके को अपनी प्रयोगशाला बनाया। उनकी इस सियासी चाल ने रंग भी दिखाया। 2014 के लोकसभा चुनाव में उप्र में भाजपा को अगर प्रचंड जीत मिली तो उसमें पश्चिम की इस धरती से उठी सियासी हवा का भी अहम योगदान रहा। उस हवा में जाट और मुस्लिम गठजोड़ के बल पर सियासी तोलमोल करने वाले चौधरी अजित सिंह तक अपने गढ़ बागपत में न सिर्फ ढेर हुए बल्कि तीसरे स्थान पर खिसक गए थे। यही समीकरण 2017 के विधानसभा चुनाव में भी बने। भाजपा ने प्रदेश में भी भारी बहुमत हासिल किया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सियासी ताकत माने जाने वाले रालोद को सिर्फ एक सीट पर, छपरौली में जीत मिली। वह भी किसी तरह से।
हार के बाद एक तो हुए, पर...
विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद ही मुख्य विपक्षी दलों सपा-बसपा को महसूस हुआ कि भगवा दुर्ग में तब्दील हो रहे उत्तर प्रदेश की लड़ाई को अब अकेले लडऩा आसान नहीं है। अपनी जमीन बचाने के लिए रालोद मुखिया चौधरी अजित सिंह और उनके वारिस जयंत भी सक्रिय हुए। बागपत, मुजफ्फरनगर, शामली, बिजनौर और सहारनपुर में लगातार कैंप किया। अपनों को समझाने की कोशिश भी हुई कि अगर ऐसे ही बिखरे रहे तो सत्ता के शीर्ष पर आपकी आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह हो जाएगी। इस विपक्षी एका की कोशिश को बल दिया कैराना उपचुनाव ने। रालोद के सिंबल पर लड़ीं तबस्सुम हसन ने हुकुम सिंह के निधन के बाद सहानुभूति के रथ पर सवार उनकी बेटी मृगांका सिंह को मात दे दी। खास बात यह रही कि पूरे उपचुनाव के दौरान न तो सपा मुखिया अखिलेश यादव आए और न ही बसपा प्रमुख मायावती। पूरी कमान जयंत के हाथ में रही। तब राजनीतिक विश्लेषकों ने माना था कि जाटों और मुस्लिमों के बीच जमी मोटी बर्फ पिघलनी शुरू हो गई है। तो क्या यह मान लिया जाए कि रालोद ने अपने पुराने समीकरण को फिर से बैलेंस कर लिया है? इस सवाल का जवाब मिलेगा, जरा नतीजे आ जाने दीजिए।
'साथी' आपका इरादा क्या है
अब चर्चा गठबंधन के प्रमुख दल सपा और बसपा की कर लेते हैं। दोनों दलों के योद्धा मैदान में उतर चुके हैं। समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह साइकिल का पहला वर्ण और बहुजन समाज पार्टी के निशान हाथी का अंतिम वर्ण लेकर आपसी रिश्तों को प्रगाढ़ करने वाले शब्द 'साथीÓ का इजाद भी कर लिया गया है। अंदरखाने और भी गतिविधियां चल ही रही होंगी, लेकिन क्या बिना नायक के मैदान में उतरे सियासी युद्ध जीता जा सकता है? हकीकत यही है कि अभी तक जमीन पर बड़े नेताओं की सक्रियता नजर नहीं आई है। हालांकि चौधरी अजित सिंह की मुजफ्फरनगर और जयंत की बागपत में चल रहीं चुनावी गतिविधियों को इससे अलग रखना पड़ेगा। क्योंकि दोनों ही उम्मीदवार हैं। तो क्या मान लिया जाए कि गठबंधन ही सपा-बसपा की जीत का फार्मूला है? इसीलिए दोनों दलों के मुखिया निश्चिंत हो गए हैं? इस निश्चिंतता की एक वजह यह भी हो सकती है कि अब तक सारे चुनावी विश्लेषण जातियों पर ही आधारित रहे हैं। कागजों में निश्चित तौर पर गठबंधन का जातीय गणित मजबूत है। पर जिस देश में वोट देने के मानकों में यह भी शामिल हो कि कौन नेता, कितनी बार हमारे सुख-दुख में शामिल हुआ है, क्या वहां भी पाई चार्ट और स्टेटिक्स के सहारे मुतमईन हुआ जा सकता है?
ध्रुवीकरण हुआ तो जाति कहां टिकेगी
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रो. संजीव शर्मा कहते हैं कि चुनावी राजनीति किसी एक फार्मूेले पर आधारित नहीं हो सकती। जाति का फैक्टर बड़ा है। इसे आप नकार नहीं सकते लेकिन, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर धार्मिक ध्रुवीकरण हुआ तो जाति कहां टिक पाएगी। शाकंभरी देवी से चुनाव अभियान का आरंभ करके भाजपा यह संदेश दे भी चुकी है। यह भी तय है कि गठबंधन की देवबंद में होने वाली सभा के बाद भी भाजपा इसे मुद्दा बनाने जा रही है। इन सबके बावजूद जनता यह देखती है कि उसके संघर्षों का साथी कौन है? विपक्ष चुनाव दर चुनाव हार का सामना कर रहा है। फिर भी जमीन पर कहीं संघर्ष करते हुए नहीं दिखा। जहां तक आंकड़ों की बात है तो क्या 2014 के नतीजों को झुठला देंगे? मेरठ और मुजफ्फरनगर जैसी सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों को जितने वोट मिल गए थे, सपा और बसपा प्रत्याशियों को उतने मिलाकर भी नहीं मिले थे।
बढ़त बना चुकी है भाजपा
सपा मुखिया अखिलेश यादव और बसपा प्रमुख मायावती की पहली रैली सात अप्रैल को देवबंद में होगी। इसके अगले दिन मेरठ में। अन्य नेताओं की कोई सभा कहीं होगी कि नहीं फिलहाल तक कोई जानकारी सामने नहीं आई है। भाजपा की तरफ से चुनाव अभियान की शुरुआत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ शक्तिपीठ शाकंभरी माता के दरबार से कर चुके हैं। प्रधानमंत्री खुद मेरठ में रैली कर चुके हैं। कैराना में उनकी सभा का कार्यक्रम आ चुका है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लगातार पश्चिमी उप्र को मथ रहे हैं। प्रदेश सरकार के तमाम मंत्री दौरे पर हैं ही। इससे उनकी गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह अलग बात है कि मेरठ हापुड़ संसदीय क्षेत्र से गठबंधन प्रत्याशी हाजी याकूब इसे भाजपा का डर बताते हैं। उनका कहना है कि हमारे शीर्ष नेतृत्व ने अपने हिसाब से रणनीति बनाई है। भाजपा नेताओं को हार का डर सता रहा है इसीलिए इतनी रैलियां और सभाएं कर रहे हैं।
क्या चाहती है कांग्रेस
सहारनपुर, कैराना और बिजनौर में दमदार प्रत्याशी देकर कांग्रेस ने इरादे तो जताए थे, पर बड़े नेताओं ने जिस तरह से दूरियां बनाई हैं, उससे लगता है कि यह पार्टी दो कदम आगे बढ़कर चार कदम पीछे लौट चुकी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को जब पश्चिमी उप्र की कमान सौंपी गई थी, उस वक्त लगा था कि कांग्रेस गंभीर हो रही है। कुछ दिनों में उसकी इस गंभीरता की हवा निकल गई। चुनावी तैयारियों के सिलसिले में अब तक एक बार भी ज्योतिरादित्य नहीं आए हैं। शामली में पुलवामा के शहीदों के यहां राहुल और प्रियंका के साथ वह जरूर आए थे। इसी तरह भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर से अस्पताल में मिलने भी प्रियंका वाड्रा के साथ आ चुके हैं। चूंकि इन दोनों दौरों को कांग्रेस की तरफ से ही कहा जा चुका है कि सियायी मायने न निकाले जाएं, तो फिर उस चश्मे से क्यों देखा जाए। मेरठ में ज्योतिरादित्य सिंधिया का सात अप्रैल को रोड शो है। राहुल और प्रियंका के आठ अप्रैल को सहारनपुर के दौरे के बारे में अभी तक सिर्फ कयास ही हैं। सांगठनिक रूप से सूख चुकी कांग्रेस में ऐन मतदान से पहले की यह सक्रियता कितनी जान फूंक पाएगी, कुछ कहा नहीं जा सकता?
Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें