वर्दी वाला : कहीं नीति निर्धारित, कहीं टूटते नियम, शब्दों से परे है उत्तर प्रदेश पुलिस की तैनाती नीति
शहर के जिस हाईप्रोफाइल केस को लेकर पुलिस पहले से ही कठघरे में खड़ी है उसके बाद भी विवेचना का जिम्मा संभालने वाले अफसर आरोपित के अस्पताल में उपचार कराने लगे तो सवाल उठना लाजिमी है
मेरठ, [सुशील कुमार]। शब्दों से परे है उत्तर प्रदेश पुलिस की तैनाती नीति। अवर्णनीय है। कहीं तो यह ऐसी है कि चुटकी बाद में बजती है, और तैनाती पहले हो जाती है। कहीं ऐसी भी है कि सभी नियम कानून टूट जाते हैं। हम बात कर रहे इंस्पेक्टर नौचंदी की तैनाती की। शासन ने एक थाने में एक बार तैनाती का आदेश दिया है, लेकिन उनकी तैनाती दोबारा कर दी गई। इससे पहले भी वह 13 नवंबर 2008 से 25 फरवरी 2009 तक बतौर थाना प्रभारी के पद पर नौचंदी थाने में तैनात रहे। दोबारा से उनकी तैनाती पर महकमे में सवाल जरूर उठ रहे है। यही हाल इंस्पेक्टर भावनपुर की तैनाती में खड़ा हुआ है। ब्रह्मपुरी थाने से हटाने के बाद छह माह का समय भी पूरा नहीं हुआ था कि उन्हें भावनपुर थाने का प्रभारी बना दिया गया। क्या सबके लिए नियम अलग अलग हैं। क्योंकि कई थाना प्रभारियों को छह माह से अधिक समय बीत गया है।
कहीं और करा लेते इलाज
शहर के जिस हाईप्रोफाइल केस को लेकर पुलिस पहले से ही कठघरे में खड़ी है, उसके बाद भी विवेचना का जिम्मा संभालने वाले अफसर आरोपित के अस्पताल में उपचार कराने लगे तो सवाल उठना लाजिमी है। जी हां, हम बात कर रहे हैं एसपी क्राइम की, जो हरिओम आनंद आत्महत्या प्रकरण में एसआइटी के प्रभारी हैं। अर्थात, जांच का पूरा जिम्मा उनके ऊपर है। कोरोना संक्रमण के शिकार होने पर उन्हें सुभारती मेडिकल कॉलेज में उपचार के लिए भर्ती करा दिया गया, जबकि सुभारती मेडिकल के ट्रस्टी अतुल भटनागर और उनकी पत्नी मुक्ति भटनागर भी आनंद आत्महत्या प्रकरण में आरोपित हैं। ऐसे में विवेचना अधिकारी की कार्यशैली से क्या निष्पक्षता की उम्मीद की जा सकती है, पीडि़त पक्ष के अधिवक्ता ने यह सवाल उठाए हैं। अब देखना है कि ऊंट किस करवट बैठता है।
साहब को फालोअर की चिंता
पुलिस महकमे में अक्सर देखा जाता है कि अफसरों को अपराध की ङ्क्षचता रहती है। बड़े से बड़ा अफसर भी अपराध की रोकथाम के लिए अधीनस्थों को काम पर लगाए रखता है। हालांकि हाल में एक सीओ की तैनाती हुई है, जो अपराध के बजाय सोशल साइट््स पर फोलाअर जोडऩे में कुछ ज्यादा समय खर्च करते हैं। इन महाशय को सर्किल भी ऐसा थमाया गया है, जहां पर सोशल साइट््स देखते रहे तो सर्किल में कानून व्यवस्था संभालनी भारी पड़ जाएगी। महकमे में अभी से चर्चा होने लगी है कि साहब पूरा दिन अपनी तरफ से सोशल मीडिया पर डाली गई जानकारी पर कमेंट देखते रहते हैं। अपना छोटा से छोटा गुडवर्क सोशल साइट््स पर डालते हैं। यह अच्छी बात है। हालांकि जनाब, हो रहे क्राइम भी डालिए, ताकि फालोअर को आपकी कार्यशैली के बारे में पता चले। सोशल साइट््स से नहीं, धरातल से जुडि़ए।
सड़क जाम से निजात दिलाएं
शहर को जाम से बचाने के लिए हापुड़ अड्डे से की गई शुरुआत उम्मीद भरी है। ई-रिक्शा और आटो को खड़ा करने का दायरा सौ मीटर बनाया तो हापुड़ अड्डा जाम से मुक्त लगने लगा। यातायात सुधार के इस प्रयास से राहत की उम्मीद तो जगी है, मगर अभी बहुत अधिक सफर तय करना बाकी है। दिल्ली रोड पर बागपत अड्डा और रेलवे रोड चौराहा हर समय जाम से जकड़े रहते हैं। ऐसे में यातयात पुलिस को चाहिए कि शहर के अन्य चौराहों पर सीमा निश्चित करें, ताकि जाम से कुछ राहत मिल सके। शहर में कप्तान से लेकर एडीजी तक बैठते हैं, उनके जाने और आने के समय तो रास्ता खाली करा दिया जाता है। ऐसे में उन्हें शहर का जाम सिर्फ अखबारों में ही दिखाई देता है। अफसरों को भी चाहिए की जाम को देखने सड़क पर निकलें और निजात दिलाएं।