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कई काली रातें काटकर देखी थी आजादी की वह सुबह

चार महीने से हम परिवार के साथ जान बचाने के लिए लाहौर से मनाली अंबाला से बठिंडा की खाक छान रहे थे। उम्र कची थी इसलिए बहुत कुछ तो हमें समझ नहीं आ रहा था लेकिन यह जरूर पता था कि आजादी मिल जाएगी।

By JagranEdited By: Published: Thu, 15 Aug 2019 05:00 AM (IST)Updated: Thu, 15 Aug 2019 06:30 AM (IST)
कई काली रातें काटकर देखी थी आजादी की वह सुबह
कई काली रातें काटकर देखी थी आजादी की वह सुबह

मेरठ, जेएनएन: चार महीने से हम परिवार के साथ जान बचाने के लिए लाहौर से मनाली, अंबाला से बठिंडा की खाक छान रहे थे। उम्र कच्ची थी, इसलिए बहुत कुछ तो हमें समझ नहीं आ रहा था, लेकिन यह जरूर पता था कि आजादी मिल जाएगी। लेकिन आजादी के पहले का दृश्य इतना भयानक होगा, आज याद करके भी सिहर उठती हूं। हां, जिस दिन आजादी मिली थी, वह दिन अद्वितीय था। 15 साल की थी मैं। मुझे याद है कि हर घर में मिठाई बनी थी उस दिन। जिसके यहां भी जाते, मुंह मीठा कराए बगैर नहीं लौटाता। तब कागज की झंडियों का चलन था। गली-मोहल्ले रंग-बिरंगी झंडियों से पटे थे। तिरंगा फहराने के बाद ढोल-नगाड़ों पर भंगड़ा-गिद्दा की ऐसी जुगलबंदी मानों पहले कभी देखी न थी। हर शख्स में एक नया उत्साह था, ऊर्जा थी। चेहरे की वह चमक, वो खुशी न पहले देखी थी, न बाद में दिखी।

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आजादी से पहले के चंद महीनों को याद करते हुए विमला कहती हैं कि उनके भाई परितोष गार्गी पंजाबी साहित्यकार थे। उनके साथ ही पूरा परिवार लाहौर के पुरानी अनारकली बाजार में रहता था। मई के महीने में अचानक दंगे भड़क गए। लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। हालात ऐसे बने कि लाहौर में चलनेभर का सामान लेकर रात के अंधेरे में जैसे-तैसे बचते-बचाते हम निकल आए। कोयले वाली रेलगाड़ी से जैसे-तैसे अंबाला होते हुए भाई के जानकर के जरिए मनाली के बैनन्स गार्डेन पहुंचे। वहां कुछ माह हम रहे। कुछ शांति हुई तो बठिंडा लौटे। इस बीच भाभी के सारे गहने बिक गए। हमारा सबकुछ खत्म हो चुका था। जुलाई के अंतिम सप्ताह के बाद से हालात सुधरने लगे थे और तभी से आजादी की सुबह के इंतजार में हमने कई रातें काटी थीं।

मिरांडा हाउस के पहले बैच की स्टूडेंट थीं विमला

आजादी के बाद विमला के भाई दिल्ली शिफ्ट हो गए। 20 सितंबर, 1932 को जन्मीं विमला भी उनके साथ आ गई। चूंकि उनकी पढ़ाई पहले से लाहौर में चल रही थी, लिहाजा उन्हें मिरांडा हाउस में सीधे बीए सेकेंड ईयर में एडमिशन मिल गया। यही कॉलेज का पहला बैच भी था। कॉलेज के दिनों की बात चलते ही वे धुंधली यादों में गुम हो जाने को आतुर दिखीं। कभी सखियों में उर्मी को तो कभी अरुणा को याद करतीं। अपनी प्रिंसिपल मिस ठाकुरदास की स्ट्रिक्टनेस उन्हें आज भी याद है। 1950 में ग्रेजुएशन होते ही उनका विवाह मेरठ के अरुण से हो गया और तब से अब तक वे निस्काम भवन में ही हैं।


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