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कोई नाम बदल रहा,कोई संविधान और कहीं लड़ाई युवा बनाम अनुभव की Meerut News

मेरठ में इन दिनों हवा चली है नाम बदलने की। शामत इस बार खुद मेरठ नाम पर ही आयी। पिछले साल नाथूराम गोडसे के जन्मदिन पर मांग उठी कि मेरठ को गोडसे नगर कर दिया जाए।

By Prem BhattEdited By: Published: Wed, 01 Jan 2020 10:11 AM (IST)Updated: Wed, 01 Jan 2020 10:11 AM (IST)
कोई नाम बदल रहा,कोई संविधान और कहीं लड़ाई युवा बनाम अनुभव की Meerut News
कोई नाम बदल रहा,कोई संविधान और कहीं लड़ाई युवा बनाम अनुभव की Meerut News

मेरठ, [रवि प्रकाश तिवारी]। मेरठ में इन दिनों हवा चली है नाम बदलने की। शामत इस बार खुद मेरठ नाम पर ही आयी। पिछले साल नाथूराम गोडसे के जन्मदिन पर मांग उठी कि मेरठ को गोडसे नगर कर दिया जाए। तब तो किसी ने ध्यान न दिया लेकिन इस बार जब शासन का चौथा रिमाइंडर आया तब प्रशासन में हडकंप मचा। आइजीआरएस पोर्टल का कमाल देखिए, जवाब भेजने के बाद भी संतोष न हुआ। एक-एक कर चार रिमाइंडर ठोंक दिए। जवाब-तलब का दौर चला तो यहां के बड़े अफसर को लगा, वे कहीं चूक न जाएं। इसलिए विकास की बाधक परियोजना पर एक भी पत्र न चलाने वाले अफसरान ने भी चिट्ठी चला दी। हो-हल्ला मचा तो साहब सफाई देने लगे, हमने तो वेलेंटाइन वाले महीने में ही जवाब दे दिया था। साहब भी अब भर गए हैं, ऑफ द रिकॉर्ड कहते हैं, ..क्या इस तरह के सवाल पर ही सवाल नहीं उठने चाहिए?

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टूटी एका.. गोलबंदी नहीं, अब गुटबंदी

मेरठ का एक गैर राजनीतिक व्यापारिक संगठन कभी यहां राजनीतिक दल से ज्यादा रसूख रखता था। इसके शीर्ष पदाधिकारी का भाव सांसद-विधायक से कम न था। शासन-प्रशासन को मेरठ में सांस लेने के लिए इन्हें मनाकर रखना होता था, लेकिन व्यापारियों की गोलबंदी अब गुटबंदी में बदल गई है। गैर राजनीतिक संगठन में खुलकर राजनीति हो रही है। साम, दाम, दंड, भेद के साथ। किसी ने अपनी नई टीम बना ली है तो किसी ने चुनावी मंच सजाया। कुछ ने तो चार दशक पुराने इस संगठन के संविधान को ही बदल देने की बात उठा दी है। अब जब संविधान बदलने की बात उठी है, तो कुछ नाम भी बदलने लगे हैं। आम व्यापारी ठगा-सा है। कुछ ऐसे भी हैं जिनके दिन फिर गए हैं। सुबह पहली की सभा में नाश्ता कर रहा है, दोपहर में दूसरे का भोज और शाम को तीसरे के कॉकटेल का आनंद ले रहा है।

खुद के काम लगने का डर

पार्टी विद ए डिफरेंस का नारा बुलंद करने वाले दल ने संगठनात्मक चुनाव का बिगुल फूंका। कहा गया लोकतांत्रिक तरीके से शहर और जिले के कप्तान चुने जाएंगे। कुछ नए खून जागे और अपनी लकीर लंबी करने की बजाए शॉर्टकट अपनाकर कप्तानी के प्रबल दावेदार की लकीर मिटाने में लग गए, लेकिन हुआ वही तो क्रिकेट बोडोर्ं में तीन दशक पहले तक होता आया। कप्तानों का चयन पहले से हो चुका था। केवल नाम की घोषणा करनी थी, उसके लिए चुनाव की मुहर लगाने की प्रक्रिया अब निभा ली गई है। लेकिन अब शॉर्टकर्ट वाले युवा खून, जो काम लगाने निकले थे, उन्हें अब खुद के काम लगने का डर सताने लगा है। जिनके इशारे पर उन्होंने दांव खेला था, उन्होंने मुंह फेर लिया है। अब ऐसे युवा खून को डर सताने लगा है कि कहीं राजनीति का करियर शुरू होने से पहले ही ढलान की राह न पकड़ ले।

लड़ाई युवा बनाम अनुभव की है

इन दिनों साइकिल की ड्राइविंग सीट थामने को लेकर खींचतान चल रही है। चूंकि जिम्मेदारियां सभी से छीन ली गई हैं, ऐसे में राजनीतिक कार्यक्रमों की धार कुंद होना तो लाजिमी है। नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ अपने वोट बैंक को साधने के लिए पिछले दिनों सड़कों पर उतरने और आवाज बुलंद करने की योजना बनाई गई। कड़ाके की ठंड में खाकी के डंडे या पानी की बौछार के भय ने साइकिल को अपने कैंपस तक ही रोके रखा। फोटो-अप का शानदार सीन बन चुका था। अनुभव की टोपी पहने नेता फोटोफ्रेम में प्रमुखता से फिट होना चाहते थे, लेकिन दिन में भी 11 डिग्री तापमान के बीच नंग-धड़ंग युवा खून को यह नापसंद था। वे व्यवस्था से दो-दो हाथ करना चाहते थे। व्यवस्था से पहले भिड़ते, उससे पहले खुद के अनुभव से ही भिड़ना पड़ गया। फोटो शूट भी शानदार हुआ और साइकिल बगैर स्टैंड वहीं पार्क हो गई। 


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