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संस्कारशाला : स्वयं पर संयम बड़ी उपलब्धि

वर्तमान समय में संसार कोरोना वायरस महामारी का दंश झेल रहा है। ऐसे समय में देश में इस महामारी से लड़ते हुए अनेक कार्यकर्ता जैसे डाक्टर पुलिसकर्मी व समाजसेवी संगठन सभी ने मिलकर इस महामारी का डटकर मुकाबला किया।

By JagranEdited By: Published: Wed, 28 Oct 2020 08:23 PM (IST)Updated: Wed, 28 Oct 2020 08:23 PM (IST)
संस्कारशाला : स्वयं पर संयम बड़ी उपलब्धि
संस्कारशाला : स्वयं पर संयम बड़ी उपलब्धि

मेरठ, जेएनएन। वर्तमान समय में संसार कोरोना वायरस महामारी का दंश झेल रहा है। ऐसे समय में देश में इस महामारी से लड़ते हुए अनेक कार्यकर्ता जैसे डाक्टर, पुलिसकर्मी व समाजसेवी संगठन सभी ने मिलकर इस महामारी का डटकर मुकाबला किया। इस महामारी से देश में जनहानि बहुत ही कम फीसद रही। बिना किसी सटीक दवाई के मरीजों की बिगड़ती हालत और कभी-कभी खराब व्यवहार के बावजूद भी इन सेवकों ने अपना आत्मसंयम बनाए रखा। देश के लोगों को भी आत्मसंयम बनाए रखते हुए शुरुआती पूर्ण लाकडाउन में घरों में ही बने रहने और स्वयं को सुरक्षित रखने को प्रेरित किया। लोगों ने भी आत्मसंयम का परिचय दिया। वर्तमान समय में स्वयं पर संयम रखने का इससे अच्छा उदाहरण और क्या होगा। इनमें भी बच्चों का आत्मसंयम अधिक सराहनीय रहा। चंचल मन के बच्चों को दुनियादारी नहीं, बल्कि अपनी और दोस्तों की दुनिया ही प्यारी होती है। वे घर से निकलकर जब तक दोस्तों, स्कूल के सहपाठियों, शिक्षकों से न मिलें, खेलकूद न करें, तब तक उनका दिन अधूरा ही रहता है। बावजूद इसके बड़ों के मार्गदर्शन में बच्चे कोरोना काल में आत्मसंयम रखते हुए स्कूल और मित्रों से दूर घर में ही रहे, पढ़े, खेले और सुरक्षित रहे।

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ऐसे संकटकाल में गुरुओं ने विद्यार्थियों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए दूरसंचार (इंटरनेट) द्वारा शिक्षण कार्य शुरू किया। इस काल में सभी में सहयोग, सद्भाव जैसी भावनाओं को जाग्रत किया। कोरोना काल में शिक्षकों ने एक अनूठी पहल की। इस संकट की घड़ी में बालकों को पाठ्यक्रम संबंधी ही नहीं, बल्कि उनके उत्साह को बल देने के लिए संगोष्ठी एवं कार्यशाला के माध्यम से मार्गदर्शन किया। आनलाइन शिक्षण की व्यवस्था सभी के लिए नई थी। सभी अनजान थे। तकनीकी जानकारी नहीं थी। इंटरनेट का नेटवर्क खराब था। हर बच्चे के पास उपकरण नहीं था। आनलाइन कक्षा में जुड़ने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। एक बार फिर शिक्षकों, छात्र-छात्राओं और अभिभावकों ने आत्मसंयम का परिचय देते हुए एक-दूसरे से जुड़ने की कोशिश की। हर परेशानी का मिलकर सामना किया। कुछ जुड़े तो कुछ नहीं जुड़ सके। बार-बार कोशिश की और काफी हद तक सफलता भी मिली। इसी कोशिश के बीच एक-दूसरे की मदद करते हुए छात्र-छात्राओं ने परोपकार को भी जाना। लाकडाउन में भटकते राहगीरों की मदद को आगे बढ़े हाथों की प्रशंसा भी सुनीं। बहुत से लोग खुद हिस्सा भी बनें। मदद का हाथ बढ़ाने के लिए भी किस तरह के आत्मसंयम की जरूरत होती है, यह जाना, सीखा और आत्मसात भी किया। परमार्थ ही सच्चा स्वार्थ है

जीवन मूल्यों में संस्कार का बड़ा महत्व है। ऐसा ही एक संस्कार है सेवा का भाव। निस्वार्थ भाव से सेवा जरूरतमंदों की मदद करना हमारे संस्कारों की पहचान कराता है दूसरों की सेवा में लगे रहने से मनुष्य के मन को संतोष का भाव पैदा होता है। हमारे धर्मग्रंथों में व ऋषि मुनियों ने कहा है कि परमार्थ ही ईश्वर की सच्ची साधना है। तुलसीदासजी ने कहा है..

हरहि चरहै तापैबरत, फरै पसारै हाथ।

तुलसी स्वारथ मीत, सब परमारथ रघुनाथ।।

अर्थ : तुलसीदासजी ने सत्य ही कहा है कि मनुष्य को प्रकृति से परोपकार के भावों के बारे में सीखना चाहिए। वृक्ष जब हरे होते हैं, तब पशु उदर (पेट) पूíत करते हैं। जब सूख जाते हैं, तब लोग उसका ईधन बनाकर ऊर्जा प्राप्त करते है और जब व फल देते हैं तो लोग याचक अर्थात हाथ फैलाकर मांग लेते हैं। इन्ही भावों को रहीमदासजी ने इस प्रकार बताया है कि..

वृक्ष कबहुँ न फल भखैं, नदी न संचै नीर।

परमारथ के कारणैं, साधुन धरा शरीर।।

अर्थ : जैसे स्वाभाव होता है लोग वैसे ही कार्यो को करने में आनंद प्राप्त करते है। जैसे वृक्ष अपने फल नहीं खाते नदी अपना जल नहीं पीती उसी प्रकार से सज्जन पुरुषों का काम केवल परमार्थ होता है।

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प्रस्तुति :

कृष्ण कुमार शर्मा, प्रधानाचार्य, बालेराम ब्रजभूषण सरस्वती शिशु मंदिर इंटर कालेज, शास्त्रीनगर


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