LockDown 4.0: मेरठ का वह क्षेत्र जहां प्रशासन भी हो जाता है बेबस, यहां नहीं माने जाते कोई नियम
मेरठ में एक ऐसा क्षेत्र है जहां पर लॉकडाउन और किसी तरह का नियत माना नहीं जाता है। प्रशासन सख्ती करे तो दंगा भड़क जाता है। यहां स्वशासन चलता है।
रवि प्रकाश तिवारी, मेरठ। शहर के बीच जली कोठी। यहां की व्यवस्था चुनिंदा लोग चलाते हैं। पुलिस ने सख्ती की तो भद्द पिट जाती है, प्रशासन अंगुली उठाए तो मजिस्ट्रेट की कोहनी तोड़ दी जाती है। कहने को हॉटस्पॉट लेकिन अंदर दावत भी होती है। सैंकड़ों लोग जलसे में शामिल होते हैं। खोजबीन शुरू की जाती है तो कहीं न कहीं खाकी की सरपरस्ती का साया भी साथ नजर आता है। बहरहाल, इस हॉटस्पॉट जली कोठी पर प्रशासन ने बैरिकेडिंग लगाई तो ठीक समानांतर लोगों ने भी जुगाड़ का बैरियर ठोंका। अब बाहर बैठी पुलिस को अंदर का कुछ पता नहीं। यहां उद्यमियों को फैक्ट्री खोलने की अनुमति लेने में पखवाड़े बीत गए, लेकिन जली कोठी में चौड़े से दुकान भी खुल रही है, लोहा भी गल रहा है। प्रशासन को भी इन सबकी खबर है, लेकिन वह इतने में ही संतुष्ट है कि तुम अंदर खुश, हम बाहर।
माननीय, जवाब आपको देना पड़ेगा
लॉकडाउन-1 और लॉकडाउन-2 में देश की जनता की तरह ही मेरठ ने भी पूरा साथ दिया। किसी ने चूं तक नहीं की। उद्यमी-व्यापारी स्वेच्छा से घर बैठे लेकिन जब सरकार ने आर्थिक सुधार का पहिया घुमाना शुरू किया तो मेरठ के उद्यमियों-व्यापारियों ने भी इच्छा जताई। पहले मान-मनौव्वल, रिक्वेस्ट फार्म में प्रशासन के आगे-पीछे घूम, लेकिन घूमते-घूमते इतना दर्द मिला कि अब तेवर बगावती हो चले हैं। अब तो शहर का यह बड़ा वर्ग प्रशासनिक अधिकारियों पर कम, अपने जन प्रतिनिधियों पर ज्यादा आक्रोशित है। कहते हैं, शहर पीछे छूटेगा, हम बर्बाद होंगे, इससे अफसरों को क्या। आज यहां हैं, कल तबादला होकर कहीं और होंगे। आखिर इन्हें हमसे लगाव भी क्यों हो, लेकिन जिन्हें हमारे बीच ही रहना है, जिन्हें हमने अपना नेता चुना, उनकी चुप्पी समझ से परे है। माननीयों को हमारी परेशानी का हिसाब देना पड़ेगा, हर सवाल का जवाब देना पड़ेगा।
आखिर, क्या फर्क पड़ता है?
प्रदेश के गिने-चुने औद्योगिक नगरों में एक मेरठ के औद्योगिक आस्थानों में कामकाज को पटरी पर लाने को उद्यमी प्रशासन की हर शर्त मानने को तैयार हैं, लेकिन लॉकडाउन-4 का आधा समय बीत जाने के बाद भी चुनिंदा कल-कारखाने ही चले। चूंकि उद्योग केवल उद्यमियों का नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में कामगारों का भी हितकारी है। अगर उद्योग का पहिया घूमने लगे तो पलायन रूके और जो पलायन करके यहां पहुंचे हैं और खाली हाथ हैं, उनके लिए भी काम का रास्ता खुले। पिछले दिनों उद्यम शुरू करने में आ रही दिक्कतों को दूर करने के लिए कमेटी भी गढ़ी गई। बड़ों ने तय किया, उद्यमियों को भी रखा जाए, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जब सवाल सार्वजनिक हुए तो साहब बोले, उद्यमी के होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। बेरुखी भरे जवाब की वजह तो साहब जाने, लेकिन यह उचित तो नहीं है।
ऐसे तो नई महामारी फैलेगी
हर बरसात के पहले गंदगी को ढोने वाले नालों की गाद नगर निगम निकालता है ताकि बरसात के पानी का फ्लो बना रहे और शहर में जलभराव न हो। शुरुआत इस बार भी कर दी गई। दावा किया गया कि इस बार आबू नाला एक से रिकॉर्ड सिल्ट निकाली गई है। नाले के ठीक किनारे इनका पहाड़ भी खड़ा कर दिया गया। देखते-देखते 10 दिन बीत रहे हैं। नाले की सिल्ट सूख गई है। 45 के पास पहुंचे पारे की तपिश और लू के थपेड़ों से अब टूटकर इसके कण धूल बनकर उडऩे लगे हैं। कोरोना महामारी के बीच जहां साफ-सफाई को लेकर नगर निगम रोजाना दर्जनों टैंकर कीटनाशक छिड़क रहा है, वहीं खुले में पड़ी सैंकड़ों टन यह सिल्ट नई महामारी का रास्ता खोल रही है। सभी हुक्मरान आंख मूंदे बैठे हैं। हद है.. हालात बेकाबू होंगे तो यही फिर लकीर पीटते नजर आएंगे।