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सामान्य हालात में ही हो सकती है कश्‍मीरी पंडितों की घर वापसी Meerut News

दैनिक जागरण के अकादमिक संगोष्ठी में कश्‍मीरी पंडितों के घर वापसी के विषय पर अतिथि अभिषेक शर्मा ने अपने विचार व्‍यक्‍त किए।

By Prem BhattEdited By: Published: Thu, 30 Jan 2020 11:06 AM (IST)Updated: Thu, 30 Jan 2020 11:06 AM (IST)
सामान्य हालात में ही हो सकती है कश्‍मीरी पंडितों की घर वापसी Meerut News
सामान्य हालात में ही हो सकती है कश्‍मीरी पंडितों की घर वापसी Meerut News

मेरठ [आशु सिंह] 19 जनवरी 1990। यही वो दिन था जब बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों को अपनी जमीं, अपना घर-बार छोड़कर रिफ्यूजी कैंपों में बस जाने को मजबूर होना पड़ा। उन पर क्या-क्या अत्याचार नहीं हुए। 30 साल हो गए, वे अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं। वे वापसी के इंतजार में हैं। गुजरे सालों में कश्मीरी पंडितों को वादी में फिर से बसाने के कई प्रयास हुए लेकिन सफल नहीं हो सके। आज भी देश के हुक्मरानों के सामने यह सवाल मुंह बाए खड़ा है कि कश्मीरी पंडितों की वापसी कैसे हो? दैनिक जागरण की अकादमिक संगोष्ठी में बुधवार को इसी विषय पर विचार-मंथन हुआ। सिविल एकेडमी के निदेशक अभिषेक शर्मा ने इस विषय पर रोशनी डाली।

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अतिथि के विचार

30 साल बाद भी हमें इस विषय पर चर्चा करनी पड़ रही है कि कश्मीरी पंडितों की वापसी कैसे हो, यह हर राजनीतिक नेतृत्व व देशवासियों के लिए सोचने की बात है। इतना वक्त बीतने के बाद तो हमें उनकी घर वापसी की वर्षगांठ मनानी चाहिए थी। घाटी में 1990 में जो हुआ वह विभाजन के वक्त भी नहीं हुआ था। 1947 से 90 तक कश्मीरी पंडित वहीं रहे। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि इतनी बड़ी आबादी को निर्वासन ङोलना पड़ा। दरअसल, तनाव की शुरुआत 80 के दशक में हुई। अफगानिस्तान पर रूस के हमले से तनाव बढ़ा। पाकिस्तानी राष्ट्रपति जिया उल हक ने अमेरिका की मदद से अफगानी कबायलियों को खड़ा किया। पीओके में आतंकी कैंप बनाए और कबायलियों को ट्रेनिंग दी। इन्हीं कैंपों को भारत के खिलाफ भी इस्तेमाल किया गया। घुसपैठ के साथ कश्मीर में इस्लामीकरण की शुरुआत हुई। इसी बीच कश्मीर में भी कट्टरवादी गुलाम मोहम्मद शाह सत्ता में आए। इससे जिया उल हक के मंसूबों को परवान चढ़ने में मदद मिली। इसके बाद वादी में सांप्रदायिकता घुलती चली गई।

नापाक साजिश

1987 में कश्मीर के अवाम ने कट्टरवादियों को खारिज कर दिया और कांग्रेस के समर्थन से फारूख अब्दुल्ला की सरकार बनी। इससे बौखलाए अलगाववादियों ने चुनावी राजनीति का बहिष्कार कर हथियार उठाए और भारत से कश्मीर को अलग करने की नापाक सोच को बढ़ावा देना शुरू किया। अखबारों में इश्तहार निकालकर कश्मीरी पंडितों को घर छोड़कर जाने के लिए कहा गया। नरसंहार हुआ। आतंक फैलाने के लिए कश्मीरी पंडित समाज के मोअज्जिज लोगों की चौराहे पर जघन्य तरीके से हत्याएं की गईं। हजारों कश्मीरी पंडित परिवार निर्वासित कर दिए गए। यह सिलसिला जनवरी 90 से अप्रैल तक चला।

प्रयास नाकाफी

तब से लेकर आज तक कश्मीरी पंडितों की वापसी के कई प्रयास हुए हैं। वर्तमान व पूर्ववर्ती सरकारों ने राहत पैकेज की घोषणाएं कीं। इनके लिए घाटी में अलग कॉलोनी बसाने की घोषणा हुई। लेकिन इसे अपेक्षित समर्थन नहीं मिला। कश्मीरी पंडितों के नुमाइंदों ने इसे यह कहर खारिज कर दिया कि एक कैंप से निकलकर दूसरे कैंप में भेजा जाना उन्हें स्वीकार नहीं।

कश्मीर में बढ़ाने होंगे रोजगार के अवसर

कश्मीरी पंडित चाहते हैं कि उन्हें कश्मीर में सामान्य स्थितियों में बसाया जाए। वहां की जनता उन्हें स्वीकार करे। भय का वातावरण समाप्त हो। सबकी सहमति के बाद उनकी वापसी हो। यह भी सुझाव दिया जाता है कि कश्मीरी पंडितों के साथ अन्य लोगों को भी वहां बसाया जाए। अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद इस सुझाव पर अमल आसान हो गया है। हालांकि सबसे पहले कश्मीर में हालात सामान्य करने पर जोर देना होगा। वहां रोजगार, व्यापार, पर्यटन को बढ़ावा देना होगा। सबसे बड़ी बात इस मुद्दे पर अब राजनीति से बाज आना चाहिए। युवा नेतृत्व को कमान सौंपने की जरूरत है। शेष भारत के लोगों को भी उनके दर्द को समझते हुए आगे आना होगा। 


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