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कश्मीरी पंडितों का नवरेह पर्व से.. सजाए गए थाल

धारा 370 समाप्त हो जाने के बाद कश्मीर में विस्थापित पंडितों को घाटी में फिर से बसने की आस बलवती हुई है। इस ऐतिहासिक फैसले के बाद कश्मीरी पंडित आज होने वाला नवरेह पर्व धूमधाम से मनाने की तैयारी में था लेकिन कोरोना के प्रकोप के चलते अब इसे घर में परिवार के सदस्यों के साथ मनाने की तैयार है।

By JagranEdited By: Published: Wed, 25 Mar 2020 04:00 AM (IST)Updated: Wed, 25 Mar 2020 06:01 AM (IST)
कश्मीरी पंडितों का नवरेह पर्व से.. सजाए गए थाल
कश्मीरी पंडितों का नवरेह पर्व से.. सजाए गए थाल

मेरठ, जेएनएन। धारा 370 समाप्त हो जाने के बाद कश्मीर में विस्थापित पंडितों को घाटी में फिर से बसने की आस बलवती हुई है। इस ऐतिहासिक फैसले के बाद कश्मीरी पंडित आज होने वाला नवरेह पर्व धूमधाम से मनाने की तैयारी में था, लेकिन कोरोना के प्रकोप के चलते अब इसे घर में परिवार के सदस्यों के साथ मनाने की तैयार है। बुधवार को कश्मीरी पंडित परिवारों की महिलाओं ने 'थाल भारूल' रस्म उत्साह से अदा की।

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कश्मीर पंडितों के लिए साल का पहले दिन मनाया जाने वाला नवरेह पर्व महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कश्मीरी पंडित अपने बच्चों के जन्मदिन से लेकर पर्व और त्योहार इसी के आधार पर मनाते हैं।

क्या है थाल भारूल रस्म

सुभाषनगर निवासी अशोक गारू की मां 80 वर्षीय मां उमा गारू और पत्‍‌नी रेनू गारू पारंपरिक आभूषण पहन कर देरशाम थाल सजाने में जुटी थी। इसमें चावल, मूली, एक डिब्बी में केसर, और परिवार में जितने सदस्य होते हैं उतने अखरोट रखे जाते हैं। थाल को तरह तरह से सजाने की परंपरा है। अशोक ने बताया कि इस बार बाजार बंद होने से बिना किसी तामझाम के रस्म अदा की जा रही है। थाल में सबसे अहम एक छोटा शीशा होता है। इस थाल को पूजा स्थल पर रातभर रखा जाता है। सुबह घर की महिला सदस्य पहले शीशे को पूरे घर में घुमाती है, इसके बाद उसमें अपना मुंह देखती हैं। इसके बाद परिवार के सभी सदस्य शीशे में अपना मुख देखते हैं। इसके साथ ही एक दूसरे को नववर्ष की बधाई देने का सिलसिला आरंभ हो जाता है। थाल में पेन भी रखा जाता है।

लालकुर्ती निवासी विमला शिवपुरी ने बताया कि कश्मीरी पंडित लिखा पढ़ी और शिक्षा से जुड़े रहे हैं। इसी के प्रतीक स्वरूप उसमें पेन भी रखा जाता है। थाल में रुपये भी रखे जाते हैं, जो घर की लड़की लेती है।

चार दिन तक मनाई जाती हैं खुशियां

उमा गारू ने बताया कि जब वह काश्मीर के सोपोर में उनका मायका था। विवाह के बाद वे मेरठ आ गईं। बचपन की यादें ताजा करते हुए बताया कि चूंकि कश्मीरी पंडितों में मांसाहार खाया जाता है, इसलिए चार दिन तक घरों में पकवान के साथ मांस की लजीज डिशें बनतीं थीं। यह परंपरा आज भी है, लेकिन कई परिवार अब शाकाहार ही खाते हैं। लालकुर्ती निवासी विपिन बिहारी शिवपुरी ने बताया कि शहर में समस्त कश्मीरी परिवारों के साथ हर साल नवरेह की शाम सामूहिक भोज का आयोजन किया जाता था। इस बार धारा 370 समाप्त होने पर भव्य रूप से करने की तैयारी थी, लेकिन अब इसे स्थगित कर दिया गया है।


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