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मेरठ की फिजा और हुई नीली, उलटबांसी मिजाज के लिए मशहूर यह शहर

निकाय चुनाव का जनादेश चुका है और एक बार फिर मेरठ ने अपनी तासीर न बदलते हुए उलटबांसी ही की है। जहां प्रदेश में भाजपा का भगवा रंग छा रहा था तो मेरठ के आसमान पर नीला रंग गहरा हो चला।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Sat, 02 Dec 2017 04:05 PM (IST)Updated: Sat, 02 Dec 2017 04:51 PM (IST)
मेरठ की फिजा और हुई नीली, उलटबांसी मिजाज के लिए मशहूर यह शहर
मेरठ की फिजा और हुई नीली, उलटबांसी मिजाज के लिए मशहूर यह शहर

मेरठ [रवि प्रकाश तिवारी]। कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से।

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ये नए मिजाज का शहर है, जरा फासले से मिला करो।।

मशहूर शायर बशीर बद्र ने मेरठ के मिजाज को अच्छे से समझा। अपने सियासतदां से भी बेहतर ढंग से। शायद यही वजह है कि बद्र साहब का यह शेर भले ही कई वर्ष पहले लिखा गया जो आज भी मौजूं हो चला। आज भी तस्वीर वैसी ही बनती है, जैसी उन्होंने कही। जी हां, निकाय चुनाव का जनादेश चुका है और एक बार फिर मेरठ ने अपनी तासीर न बदलते हुए उलटबांसी ही की है। 

जहां पूरे प्रदेश में भाजपा का भगवा रंग छा रहा था तो मेरठ के आसमान पर नीला रंग गहरा हो चला। इसी मेरठ ने महज आठ महीने पहले ही भाजपा का भरपूर साथ दिया तो आज हाथी की सवारी कर ली। सबकुछ बदला, लेकिन मेरठ ने अपना इतिहास नहीं बदलने दिया। यह शहर हमेशा से ही बागी रहा। सत्ता के खिलाफ बगावत आज भी जारी है। शहर ने जब जैसा चाहा अपने को बदल लिया और किसी भी सीट पर किसी को भी बैठा दिया। भले ही वह बाहरी और शहर के लिए नया ही क्यों न हो। अवतार सिंह भड़ाना इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। महापौर, विधायक या सांसद चुनने में कभी इस बात की परवाह नहीं की कि इसे चुनेंगे तो राज्य या केंद्र में सरकार होने का फायदा मिल जाएगा, नहीं चुनेंगे तो घाटा होगा। 

हर बार की तस्वीर देखिए...समझ आ जाएगा

वर्तमान से गौर करना शुरू करें तो सांसद भाजपा का बनाया, शहर विधायक सपा का बनाया तो अब महापौर बसपा का बना दिया। तीनों को एक साथ अपने-अपने कार्य दिखाने का मौका दे दिया है। इससे पूर्व 2012 में जब भाजपा का महापौर बनाया तो सांसद भाजपा का और शहर विधायक भी भाजपा के ही थे। 2006 में जब भाजपा से महापौर चुना तो उस समय शहर विधायक भाजपा से थे और सांसद बसपा से। 

वर्ष 2000 में महापौर बसपा से चुना तब सांसद कांग्रेस और शहर विधायक भाजपा के थे। 1995 में बसपा को महापौर की सीट दी तो उस समय सांसद और विधायक भाजपा के थे। 

विकास की कड़ी जोडऩे का मौका था...खो तो नहीं दिया

जनादेश आ चुका है। इस जनादेश को लेकर अब शहर में तरह-तरह की चर्चाएं भी होने लगी हैं। प्रबुद्ध वर्ग में 10 साल के सत्ताविरोध के फैक्टर की चर्चा जहां जोर-शोर से है, वहीं छोटे-छोटे काम भी न हो पाने की पीड़ा भी बातचीत में झलकती है। लोग कह भी रहे हैं...अच्छा हुआ पलट गया। अब शायद आंख खुल जाए। इन सबके बीच एक बड़ा तबका यह भी है जो इसके वृहद पक्ष को भी परिभाषित करते नहीं थक रहा। कई आशंका भी जता रहे हैं, कहीं मेरठ का नुकसान न हो जाए।

यह एक बेहतर मौका था जब प्रदेश और केंद्र के साथ ही मेरठ शहर में भी भाजपा की अगुवाई में सरकार चलती तो शायद शहर का ज्यादा भला होता। ऐसा मौका पिछले कई सालों में हाथ नहीं लगा था, इस बार मौका मिला था, लेकिन शहर चूक गया। फिर यही लोग यह कहते हुए आगे बढ़ते हैं कि अब तो समझ आ ही गया होगा, और करें अनदेखी तो 2019 भी ऐसे ही हाथ से खिसकते देर नहीं लगेगी। 

मेरठ...तेरे कितने रंग

मेरठ भी तरह-तरह के रंग दिखाता है। ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ गदर के लिए जहां शहर की माटी देश-दुनिया में जानी जाती है, वहीं इस मेरठ के सीने में महाभारतकालीन हस्तिनापुर भी समाया हुआ है। अब इसे महज संयोग कहें या कुछ और लेकिन सूबे की सत्ता में यह ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व वाला मेरठ सीधी दखल रखता है। हस्तिनापुर की मान्यता रही है कि यहां जिस पार्टी का विधायक जीतता है, लखनऊ में वही राज करता है जबकि मेरठ शहर सत्ता में काबिज सरकार को हर बार निकाय चुनाव में आईना दिखाता है और सत्ता के खिलाफ जनादेश देता है। 

जिसने जीता हस्तिनापुर, उसी की बनी प्रदेश में सरकार

कौरव-पांडवों की राजधानी रहे हस्तिनापुर और प्रदेश के विधानसभा परिणाम का विचित्र संयोग रहा है। लोग मानते हैं कि जिसने हस्तिनापुर विधानसभा सीट को जीत लिया, सरकार भी उसी की ही बनी।  इस विचित्र संयोग की पुष्टि आंकड़े करते रहे हैं। हस्तिनापुर विधानसभा सीट वर्ष-1957 में अस्तित्व में आई थी। 1957 से 2017 तक के चुनावी नतीजे इस बात की तस्दीक करने के लिए काफी हैं।

यह रहा इतिहास

1957 से लेकर 67 तक कांग्रेस के विधायक जीते तो प्रदेश में सरकार बनी। 69 में भारतीय क्रांति दल के विधायक आशाराम इंदु जीते तो भारतीय क्रांति दल की सरकार रही। चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री बने। वर्ष-74 में कांग्रेस विधायक जीतने के साथ प्रदेश में इसी दल की सरकार बनी। रेवती शरण 77 में जनता पार्टी से चुनाव लड़े तो उसी दल की सरकार बनी। इसके बाद 80 व 85 में कांग्रेस के विधायक जीतने के बाद कांग्रेस की सरकार बनी। 89 में झग्गड़ सिंह जनता दल से जीते तो सूबे में जनता दल की सरकार बनी और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। इसके बाद भी यहीं संयोग बना रहा। 2012 में सपा के प्रभुदयाल वाल्मीकि इस सीट से चुनाव जीते और अखिलेश सरकार अस्तित्व में आयी। 2017 में यहां से भाजपा के दिनेश खटीक जीते और सरकार भाजपा की बनी।

हस्तिनापुर से जीते विधायक व बनी सरकार

वर्ष       विधायक          सरकार 

2017    दिनेश खटीक       भाजपा

2012    प्रभुदयाल          सपा 

2007    योगेश वर्मा       बसपा

2002    प्रभुदयाल         सपा

1996   अतुल कुमार      निर्दलीय

1989   झग्गड़ सिंह      जनता दल

1985   हरशरण सिंह      कांग्रेस 

1980   झग्गड़ सिंह       कांग्रेस

1977   रेवती शरण मौर्य जनता पार्टी 

1974   रेवती शरण मौर्य   कांग्रेस

1969  आशाराम इंदु      बीकेडी

1967  आरएल सहाय    कांग्रेस 

1962   पीतम सिंह       कांग्रेस 

1957   विशंभर सिंह     कांग्रेस।


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