Lockdown: लॉकडाउन के दौरान ऐसे निपटें मानसिक थकान, अकेलेपन और उदासीनता से Meerut News
जब लोग अपने को फंसा हुआ महसूस करते हैं तो ऐसा करते हैं। वैज्ञानिक तर्क यही है कि स्थितियों में बदलाव तुरंत हो जाते हैं। लेकिन इनसें निकलने मेंं समय लगता है।
मेरठ, जेएनएन। Lockdown जब भी जीवन, जीवन की गुणवत्ता, स्वजनों पर कोई संकट, हानि की स्थिति या उसकी आशंका होती है, तो मनुष्य उससे उबरने में अपने तमाम संसाधन झोंक देता है। ऐसे में मानसिक, शारीरिक शक्ति रूपी संपदाएं ज्यादा खर्च होती हैं। थकान, अकेलापन, उदासीनता या अवसाद घेरने लगते हैं। अब मानसिक व्यस्तता भी नहीं के बराबर रह गई है। इन परिस्थितियों में जब प्रक्रिया लंबी होने लगती है तो व्यक्ति इन दिक्कतों से उबरने की कोशिश करता है।
वैज्ञानिक तर्क भी
मस्तिष्क को सबकुछ ठीक होने के संकेत देने की कोशिश करता है। वह कई बार घर से बाहर निकलता है। रोजमर्रा की दिनचर्या दोहराने की कोशिश करता है। दरअसल, यह सब मनोवैज्ञानिक यात्रा है। जब लोग अपने को फंसा हुआ महसूस करते हैं तो ऐसा करते हैं। इसके पीछे का वैज्ञानिक तर्क यही है कि स्थितियों में बदलाव तो तुरंत हो जाते हैं, लेकिन अतिबदलाव की स्थिति में मस्तिष्क को तालमेल बिठाने में समय लगता है। यही ऊहापोह का वक्त है। आइए, चरणवार इन परिस्थितियों को समझाते हैं और कोशिश करते हैं उनके समाधान की।
अकेलापन
हजारों वर्षों की यात्रा करते हुए हमारा दिमागी ढांचा सामाजिक हुआ। सामान्य महसूस करने के लिए हमें सामाजिक संकेत मिलते रहने चाहिए। दिनचर्या पूरी तरह बदलने से सामाजिक संकेत मिलने नहीं के बराबर हो गए हैं। मस्तिष्क ऊहापोह की स्थिति में पहुंच जाता है। जिन घरों में कम सदस्य हैं, वहां यह भाव ज्यादा, जबकि संयुक्त परिवार में कम दिखते हैं।
क्या करें
- अपनी ऑनलाइन हॉबी बढ़ा दें। मसलन नृत्य-संगीत आदि।
- तकनीक के सहारे वर्चुअल दुनिया से जुड़ें। रिश्तेदारों-मित्रों से वाट्सएप चैट करें।
- बुजुर्ग या जो तकनीक दक्ष नहीं हैं अपनी बालकनी, छत, बरामदे में बुलंद आवाज में रामायण और सुंदरकांड का पाठ करें। स्वयं की बुलंद आवाज ताकत का संचार कराती है।
- खेतों की मचान संस्कृति को अपनाएं। यानी बालकनी और छत पर खड़े पड़ोसी, बच्चों से बात करें। हालचाल लें, दुआ-सलाम करें।
मानसिक व भावनात्मक थकान
24 घंटे की जिंदगी धीमी हो गई है। आज की परिस्थिति में नए सिरे से तालमेल बिठाने की जरूरत है। तमाम सवाल भी तैरने लगते हैं...भविष्य का क्या होगा?, व्यापार कैसे चलेगा? आदि।
प्रधानत: जिन समस्याओं का समाधान संभव हो, उस मानसिक प्रक्रिया से मस्तिष्क नहीं थकता, वहीं जिसका समाधान नहीं निकलता दिखता है, जटिलता बढ़ती जाती है। मस्तिष्क थकने लगता है। दौड़ती-भागती जिंदगी के हम आदी हो चुके हैं। इससे हमारी सामाजिक कलाएं घटी हैं। घरों में रहते हुए भी साथ रहने की आदत नहीं है। ऐसी परिस्थितियों से तालमेल बिठाने में भी भावनात्मक थकान होती है।
क्या करें
- इसे नई सामाजिक-पारिवारिक चुनौती के रूप में लें
- अकेले रहने की प्रवृत्ति से बचें।
- 24 घंटे के शेड्यूल में अधिक से अधिक समय परिवार के साथ रहकर बिताएं। टकराव से न घबराएं।
- पारिवारिक खेल खेलें। मुखिया विनम्र भाव से अगुवाई करें। ऐसा करने से सभी की ताकत बची रहेगी।
उदासीनता
कुछ लोग स्वस्थ नहीं हैं। आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसे लोगों में उदासीनता बढ़ सकती है। उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि हालात हमारे काबू में नहीं हैं। उदासीनता की स्थिति उस समय पैदा होती है जब व्यक्ति को लगता है कि वह इस समस्या से नहीं उबर पाएगा या वह कुछ न कर पाने की स्थिति में पहुंच गया है।
क्या करें :
- वैज्ञानिक मत को समझें। सूचनाओं के गैर मान्यता प्राप्त साधन का इस्तेमाल नहीं करें, जिससे भय बढ़े।
- मित्रों-परिवारीजन से बातचीत के दौरान ध्यान रखें कि सकारात्मक भाव बना रहे।
- 24 घंटे का टाइम टेबल बनाएं और अनुशासित ढंग से उसका पालन करें। अपनी दिनचर्या में सोना-उठना, घर के काम में भागीदारी, भक्ति-पूजा, पढऩा आदि को शामिल करें।
- सार्थक और उद्देश्यपूर्ण कार्य करने से मस्तिष्क को ताकत मिलती, जो उदासीनता से लडऩे में कारगर होती है।
- पसंदीदा कार्य न कर पाने पर भी उदासीनता घेरती है। ऐसे में एक शिक्षक की मानिंद मन को समझाएं। बात करें।
अवसाद
यह उदासीनता का बढ़ा हुआ रूप है। नींद, भूख और रोजमर्रा की दिनचर्या के प्रति उदासीनता इसमें शामिल है। अवसाद के कुछ लक्षणों में तो दवाओं की भी जरूरत पड़ती है। अवसादग्रस्त लोगों में हृदयगति बढ़ जाती है। ऐसा लगता है कि कुछ अत्यधिक बुरा घटित होने वाला है। व्यापार के बड़े नुकसान, कर्जा चुकाने की चिंता उभरती है।
क्या करें :
- नाउम्मीदी का भाव मन से निकाल दें।
- मनोचिकित्सक की मदद लें।
-मनोवैज्ञानिक तौर पर भी अवसाद से लडऩे के लिए 24 घंटे का अनुशासित जीवन, मन समझाने की प्रक्रिया ही काम आती है।
क्या कहते हैं क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट
आज की परिस्थितियों में अगर ऐसा कर पाएं, तो हम अपने बच्चों में भावनात्मक रूप से जुझारू होने की प्रवृत्ति दे पाएंगे। जीवन हमेशा ही चुनौतियों के रूप में आता-जाता रहता है। हर नई परिस्थिति को इसी प्रकार देखना चाहिए और अपनी बुद्धिमता और शक्तियों का सही विस्तार करके नए तरीकों से चुनौतियों पर जीत दर्ज करने की कोशिश करनी चाहिए।
- डॉ. सीमा शर्मा, क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट